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अग्नि वैकारिकी महत्त्व समझना प्रत्येक विकृति विशारद के लिए परमावश्यक माना जाता है। यह विवरण उपस्थित करने के पूर्व हम एक बार आहार और उसके नियमन पर विहंगम दृष्टिपात करेंगे।
आहार विधि आचार्यों ने आहार विधि पर पर्याप्त प्रकाश डालते हुए बतलाया है कि प्रकृति, करण, संयोग, राशि, देश, काल, उपयोगसंस्था और उपयोक्ता । इन आठ कारणों का विशेष विचार करना चाहिए। प्रकृति का अर्थ किसी भी वस्तु का अपना निश्चित स्वभाव होता है। माष प्रकृत्या गुरु और मुद्ग प्रकृत्या लघु है। करण का अर्थ वस्तु पर किया गया संस्कार विशेष है। संस्कार के कारण तत्तत् वस्तु में विशेष गुणाधान होता है। यह गुणाधान वस्तु के जल वा अग्नि का सम्पर्क लाने से, उसका शोधन करने से, मन्थन करने से, देश विशेष में उत्पत्ति होने से या किसी स्थान विशेष में रखने से औचित्य से अधिक काल बीतने पर वस्तु के गुण में क्षीणता आती है क्योंकि उसमें भावना देने से या किसी सुगन्धादि द्रव्य में बसाने से, कालप्रकर्ष अर्थात् इतने दिन पश्चात् वस्तु का उपयोग हो ऐसा नियमन करने से, भाजन विशेष में रखने से विशेष विशेष संस्कार होकर मूल वस्तु की प्रकृति में अन्तर ले आया जा सकता है। संयोग जब किसी विशेष नये रासायनिक संगठन का निर्माण दो वस्तुओं के मिलाने से हो जाता है तो भी वस्तु के गुण में अन्तर आ जाता है। मधु, मत्स्य और दुग्ध का संयोग हानिप्रद है। राशि भी अपना प्रभाव डालती है। कितनी मात्रा में कौन द्रव्य लेना है। अमात्र, अल्पमात्र और अतिमात्र द्रव्य सेवन का पृथक-पृथक प्रभाव होता है। देश का पुनर्विचार भी करना होता है। किसी देश में कुछ सात्म्य है दूसरे देश में वह असात्म्य है तथा कहीं किसी की उत्पत्ति है कहीं किसी का प्रचार है इसका भी बहुत प्रभाव पड़ता है । काल इसी प्रकार नित्यग और आवस्थिक होता है। एक ऋतु सात्म्यापेक्षी होता है और दूसरा अवस्था का द्योतक है। इनका भी बहुत उपयोग है। किस अवस्था के व्यक्ति को क्या देना है तथा किस ऋतु में क्या देना है इस पर ध्यान देना ही पड़ेगा उपयोग संस्था पदार्थ के जीर्णाजीर्ण स्वरूप के विनिश्चयीकरण के नियमादि को कहा जाता है। उपयोक्ता के लिए कौन पदार्थ ओकसात्म्य है। किस रूप में और मात्रा में व्यक्ति ग्रहण कर सकता है यह जो व्यक्ति विशेष के लिए विशेष नियम बनाने पड़ते हैं वे सब उपयोक्ता की प्रकृति पर निर्भर करते हैं।
भोज्य साद्गुण्य इन अष्ट आहार विधियों का उचित ध्यान देने से शुभ अन्यथा अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। इसके पश्चात् भोजन करने में कुछ भोज्य साद्गुण्यों की ओर भी दृष्टि निक्षेप किया गया है१. उष्णमश्नीयात्
२. स्निग्धमश्नीयात् ३. मात्रावदश्नीयात्
४. जीर्णेऽश्नीयात्
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