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त्रयोदश अध्याय
अग्नि वैकारिकी आयुर्वेदीय दृष्टि से रोगों की वैकारिको जानने के लिए अग्नि विषयक आयुर्वेदीय कल्पना को प्रत्येक विकृति शास्त्र के विद्यार्थी को समझना होगा। महास्रोतीयसंस्थान के प्रमुख-प्रमुख रोगों की उत्पत्ति में अग्नि की विकृति मुख्य कारण है। अतीसार, ग्रहणी और अर्श ये तीन विकार मुख्यरूप से अग्नि की विकृति से ही उत्पन्न माने गये हैं। इस प्रकरण में हम इन तीन व्याधियों को मुख्यरूप से लिखना चाहते हैं । उसे लिखने के पूर्व अग्नि के सम्बन्ध में सर्वसामान्य ज्ञान उपस्थित करना परमावश्यक है ।
चरक ने सब अग्नियों में जाठराग्नि की महत्ता स्वीकार करते हुए लिखा हैअन्नस्य पक्ता सर्वेषां पक्तृणामधिपो मतः। तन्मूलास्ते हि तवृद्धिक्षयवृद्धिक्षयात्मकाः ॥
अन्न को पचाने वाली अग्नि सब अग्नियों का अधिपति करके प्रसिद्ध है । शेष अग्नियों की वृद्धि तथा क्षय में जाठराग्नि की वृद्धि या क्षय ही प्रमुख कारण माना गया है।
जाठराग्नि के कारण अन्न का पाचन होता है। अन्न पर प्रसादात्मक परिणाम से वात पित्त कफ का स्वस्थ निर्माण होता है और किट्ट भाग से मल रूप त्रिदोषों का जन्म होता है। अन्नरस जिससे शेष सब शरीरस्थ धातुओं का पोषण होता है उसका निर्माण जाठराग्नि द्वारा अन्न पर की गई स्वस्थ पाचन क्रिया पर ही अवलम्बित होता है अतः इसे शरीरस्थ सम्पूर्ण धात्वग्नियों, महाभूतानियों का अधिपति माना जावे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। इसी देहाग्नि या जाठराग्नि की प्रशंसा करते हुए चरक ने निम्नांकित वाक्यों का और प्रयोग करके अग्नि की महत्ता का समीचीन चित्रण उपस्थित किया है१. आयुर्वर्णो बलं स्वास्थ्यमुत्साहोपचयौ प्रभा। ओजस्तेजोऽग्नयः प्राणाश्चोक्ता देहाग्निहेतुकाः ।। २. शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरं जोवत्यनामयः । रोगी स्याद् विकृते मूलमग्निस्तस्मान्निरुच्यते ॥ ३. यदन्नं देहधात्वोजोबलवर्णादिपोषकम् । तत्राग्निर्हेतुराहारान ह्यपक्काद् रसादयः॥ ____ आयु, वर्ण, बल, स्वास्थ्य, उत्साह, उपचय, प्रभा, ओज, तेज, अग्नियाँ तथा प्राण इन ११ का हेतु देहाग्नि होती है। उसके शान्त हो जाने से प्राणी मर जाता है। युक्तावस्था में रहने से वह नीरोग होकर दीर्घायुष्य प्राप्त करता है उसके विकृत हो जाने से प्राणी रुग्ण हो जाता है इसीलिए आयुरादिक का मूल देहाग्नि को कहा जाता है। जिस अन्न को देह, धातु, ओज, बल-वर्णादिका पोषक माना है उसके इन गुणों का भी आदि कारण आयुर्वेद अग्नि को ही मानता है। क्योंकि बिना अग्नि के द्वारा आहारादि के परिपाक के रसादि का निर्माण सम्भव नहीं और विना परिपक्व अन्न रस से शेष धातुओं का पोषण तर्पण और प्रीणन नहीं हो सकता। इसलिए अग्नि का
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