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रुधिर वैकारिकी
असितरक्कीय सितरक्तता ( Aleukaemic Leukaemia )
इसे कूटसितरक्तता ( pseudo leukaemia ) भी कहते हैं ।
कभी-कभी शरीरस्थ ऊतियों में तो सितकोशाओं का प्रगुणन जोरों से जारी रहता है पर रक्तधारा में उसका प्रमाण उपस्थित नहीं होता । इस अवस्था को अतिरक्तीय सितरक्कता कहा जाता है । इसे असितरक्तीय मज्जोत्कर्ष (aleukaemic myelosis) या असितरक्कीय लसग्रन्थ्युत्कर्ष ( aleukaemic lymphadenosis ) या असित रक्तीय जालकान्तश्छदीयोत्कर्ष ( aleukaemic endotheliosis ) नाम देना Sales की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है । अर्थात् जो सितरुहीय ऊति प्रभावित हो रही हो उसी के अनुरूप नामकरण करना अधिक वैधानिक होगा ऐसा उसका कहना है । इसे पृथक् रोग गिनना उचित नहीं है । यह तो सितरक्तता का पूर्वरूप मात्र होता है जो शीघ्र या विलम्ब से सितरक्तता में परिणत हुआ करता है और रक्त में अगणित सितकोशा अवश्य प्रवेश करते हैं । यह स्थिति आने के पूर्व भी यद्यपि रक्त का सितकोशा सकल गणन नहीं बढ़ता फिर भी उसमें विविध प्रकार के अपूर्ण या अप्रगल्भ श्वेतकोशा मिलने लगते हैं । इस रोग में जितना लसाभ ऊति में प्रगुणन मिलता है। उतना कणकोशीय ऊति में नहीं मिलता । इसमें एक स्थानीय या सर्वांगीण लसाभ ऊतीय परमचय देखा जाता है जिसे कूट सितकोशीय लसधातूत्कर्ष ( pseudo leuk. aemic lymphomatosis ) कहा जाता है इसमें एक स्थान विशेष की लसग्रन्थियाँ या क्षेत्रविशेष की लसग्रन्थियाँ अथवा आन्त्र की लसीय ऊति की अभिवृद्धि होने लगती है | इसे देखकर लसीय संकटार्बुद ( lymphosarcoma ) और इसमें अन्तर करना बहुत कठिन हो जाता है । क्योंकि लसोय संकटार्बुद भी अन्त में सितरक्कीय चित्र उपस्थित कर सकता है ।
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इस अतिरक्तीय सितरक्तता में प्लीहा में भी सामान्य वृद्धि देखी जाती है । और यतः यह अवस्था केवल मुख्य व्याधि का पूर्वरूप मात्र है अतः धीरे-धीरे सितरक्तताओं में प्राप्त होने वाली सभी विकृतियाँ इसमें अपने प्रारम्भिक रूप में उपस्थित रहा करती हैं । उरःफलक से मज्जा लेकर उसका परीक्षण करने पर इस रोग का ठीक-ठीक निदान किया जा सकता है ।