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रुधिर वैकारिकी
६३७.
I
सितकोशापकर्ष ( leucopenia ) इस रोग का मुख्य लक्षण है । सितकोशा ३००० प्रति घ० मि० मी० तक कम हो जाते हैं । बह्वाकारी और लसकोशा दोनों में ही कमी आती है। इसमें फानडेन बर्षीय प्रतिक्रिया अप्रत्यक्ष और अस्स्यात्मक ( positive indirect ) होती है । रक्त के बिम्बाणु प्रायः प्रकृत संख्या में रहते हैं पर कभी कभी उनकी संख्या भी घटी हुई देखी जाया करती है । इस रोग में शोणांशन के कारण का पता नहीं चलता ।
इस रोग में प्लीहा की अतिशय वृद्धि हुआ करती है । पर वृद्धि के साथ उसका स्वरूप बिगड़ता नहीं है । उसके तान्तव संधार में वृद्धि होती है। प्लीहा के स्रोतसाभ खूब चौड़े हो जाते हैं जिनमें अन्तश्छदीय स्तर अन्दर को निकला हुआ होता है। मालपीघिय कार्यों की धमनियों के चारों ओर कुछ रक्तस्राव मिलता है और अपित्तमेहिक पाण्डु की तरह इनसे सम्बन्धित गैण्डीगैम्नाग्रन्थक पाये जाते हैं ।
प्लीहा के बाद यकृत् बढ़ता है । आगे चलकर यह छोटा होने लगता है उसमें ग्रन्थक उत्पन्न होने लगते हैं और वह यकृद्दाल्यूत्कर्षीय ( cirrhotic ) रूप धारण कर लेता है ।
लैहिक सिरा ( splenic vein ) भी काफी विस्फारित और स्थूलित हो जाती है । उसमें जीर्ण शोथ पाया जाता है तथा उसमें घनास्त्रोत्कर्ष भी हो सकता है । यह जीर्ण शोथ केशिका भाजिसिरा तथा उसकी शाखा प्रशाखाओं तक को प्रभावित कर लेता है जिसके कारण वहाँ भी घनास्रोत्कर्ष मिल सकता है ।
आगे चलकर यकृत् में तन्तूत्कर्ष के होने और केशिका भाजि ( प्रतिहारिणी ) सिरा के प्रभावित होने से सिरावरोध ( portal obstruction ) हो जाता है इस कारण अन्य की निश्चेष्ट अधिरक्तता उत्पन्न हो जाती है जो जलोदर ( ascites ) का कारण बनती है । जहाँ पर सांस्थानिक ( systemic ) तथा केशिका भाजि ( portal ) सिराओं का अन्तर्मेल ( anastomosis ) होता है वहाँ सिरोत्फुल्ल ( varices ) बनते हैं और फट जाया करते हैं ।
इस रोग में प्लीहोच्छेद से पर्याप्त लाभ होता है ऐसा कहा जाता है ।
सीसविषता, मलेरिया, ब्लैक वाटर फीवर और सैप्टीसिमिया द्वारा शोणांशन की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में सम्बन्धित स्थलों पर विचार किया जायगा ।
बहुको रक्तता
( Polycythaemia Rubra )
इसे प्लीह वृद्धिजन्य बहुकोशारक्तता ( splenomegalic polycythaemia) अतिशयरक्तता ( erythraemia) अथवा वाक्वेज का रोग (vaquez's disease) आदि कई नामों से पुकारते हैं । इसे एक प्रकार का जालकोस्कर्ष ( reticulosis ) माना जाता है और रक्त के लालकणों की संख्या इस रोग में बहुत अधिक बढ़ जाती है । एक घन मिलीमिटर में १ करोड़ ३० लाख तक लालकण पाये जा सकते हैं । लालकर्णी के इतना बढ़ जाने पर भी शोणवर्तुलि की मात्रा में कोई वृद्धि नहीं होती ७६, ८० वि०
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