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रुधिर वैकारिकी
६३१ चौधार्ड, ब्वायड तथा बारकोफ्ट ने अलग अलग रक्त के लालकणों कि भंगुरता ( fragility ) पर कार्य किया है। साधारणतया स्वस्थ लालकण ०.४५ प्रतिशत के लवण घोल में घुलने लगते हैं और यह घुलनशीलता ०.३ प्रतिशत के लवण विलयन में पूर्ण हो जाती है। चौफार्ड ने प्रथम बार १९०७ में यह प्रगट किया कि इस रोग में उस अल्पबल लवण विलयन में भी लालकण घुलना शुरू कर देते हैं जिसका प्रकृत लालकण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसी समय से इस रोग का वास्तविक रूप विद्वानों को समझ में आने लग गया है। इस शोणांशिक पाण्डुरोग में ०.६ प्रतिशत से लेकर ०.४ प्रतिशत तक लवणजल भंगुरता की उत्पत्ति करने में समर्थ होता है। भंगुरता की क्रिया जितनी अधिक गुलिकीय लालकणों पर देखी जाती है उतनी अप्रगल्भ लालकणों पर नहीं देखी जाती। इस कारण जब रक्त में इस रोग के कारण जालकीय कायाणुओं की अत्यधिक वृद्धि होने लगती है तो इस भंगुरता में भी कमी आ जाया करती है।
रक्तपित्ति की अत्यधिक उपस्थिति के कारण रक्तरस गहरा रंगा रहता है तथा फानडेनबर्घ प्रतिक्रिया अप्रत्यक्ष ( indirect ) मिलते हैं।
अवाप्तरूप-इस रोग का अवाप्त ( acquired ) रूप सहज रूप की अपेक्षा बहुत कम मिलता है। इसका आरम्भ बाल्यावस्था में न होकर ३० वर्ष के पश्चात् देखा जाता है। इस रूप की प्रमुख विशेषता होती है रक्त में शोणांशियों ( हीमोला इसीन्स) की उपस्थिति की। ये शोणांशियाँ सहजरूप के शोणांशिक पाण्डु में नहीं मिला करतीं। अवाप्तरूप में यह रोग बहुत भयंकर होता है तथा मारक भी होता है। रक्त के लाल कणों की संख्या २० लाख तथा उससे भी नीचे देखी जाती है पर शरीर की पाण्डुवर्णता अधिक प्रकट नहीं देखी जाती। इस रूप में दारुण्य की स्थिति सहजरूप से कहीं अधिक देखी जाती है। लालकणों की भंगुरता भी सहजरूप जैसी इधर नहीं मिलती।
विकृति-शोणांशिक पाण्डु के दोनों रूपों में वैकारिकीय परिवर्तन प्रायः समान ही होते हैं । जो मुख्य विकृतिजन्य परिवर्तन मिलते हैं नीचे लिखे जाते हैं:
१. प्लीहा पर्याप्त बढ़ जाती है उसका ओसत भार ७१ (प्रकृत भार २३ छटॉक) पाया जाता है। इस भार का मुख्य कारण प्लीहा में रक्ताधिक्य का हो जाना है। जब रक्त को निचोड़ दिया जाता है तो प्लीहा का आकार बहुत छोटा हो जाता है। प्लीहा में दृढता ( firmness ) मिलती है। उसका कटा हुआ धरातल लाल होता है। प्लीहा पर जो प्रावर चढ़ा होता है वह और मोटा हो जाता है। तथा महाप्राचीरा पेशी के साथ उसमें से अभिलाग निकल कर मिल जाते हैं। अण्वीत चित्र देखने से प्लीहा का वास्तविक स्वरूप छिप जाता है और उसके स्थान पर रक्त ही रक्त हर ओर दिखाई देता है । रक्त का वितरण भी बहुत विचित्र होता है। प्लीहा के गोर्द (pulp ) में रक्त खूब भरा होता है पर उसके स्रोतस रक्त से खाली देखे जाते हैं। उनके स्तरीकरण करने वाले कोशाओं ( lining cells ) को देखने से ऐसा
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