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afar वैकारिकी
और शरीरस्थ लोहसञ्चय स्थलों से वह उनकी पूर्ति भी कर ले पर भागे यदि ऐसा रक्तनाश हुआ तो फिर उसकी पूर्ति न हो सकेगी और लोहाभावी रक्तक्षय अवश्य उपस्थित हो जावेगा । रक्तस्राव का निरन्तर होना लोहाभावी रक्तक्षय का जिस प्रकार जनक है उसी प्रकार असृग्दर या अत्यार्तव भी स्त्रियों में इस रोग का कर्ता होता है । आहार में लोहे की निरन्तर कमी भी इस रक्तक्षय को उत्पन्न कर शिशु प्रायः जो केवल दुग्ध का ही सेवन करते हैं और क्योंकि दूध में लोहे बहुत कम रहती है प्रायः इस रक्तक्षय के शिकार हो जाते हैं । जिनके शरीर में सञ्चित लोहे की आवश्यकता गर्भ के निर्माण में
सकती है I की मात्रा
अथवा गर्भिणी स्त्रियां
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पर्याप्त होती है और तदनुकूल मात्रा में वे उसको अपने आहार में प्राप्त करने में असमर्थ रहती हैं इस कारण भी यह रक्तक्षय उनमें देखा जाया करता है। माताओं में जो अपनी सन्तान को दूध पिलाती हैं अथवा गर्भिणी स्त्रियों में इसी कारण लोहलौल्य खूब होता है । दो वर्ष तक शिशु को भी लौल्य रहा करता है । उसकी पूर्ति न होने पर लोहाभावी रक्तक्षय के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं । मातृस्तन्य में लोहे की मात्रा ठीक रहने से मातृदुग्धपायी शिशुओं में लोहाभावी रक्तक्षय न मिलकर उनकी माताओं में देखा जाया करता है तथा बोतलपायी शिशुओं के दुग्ध में लोहे का अत्यन्त अभाव रहने से इन शिशुओं में ही रक्तक्षय के दर्शन होते हैं । इसी कारण उपवर्णिक लघुकायाण्विक रक्तक्षय ( hypochromic microcytic anaemia ) सगर्भा स्त्रियों, धायों और ऊपर का दूध पीने वाले बच्चों में बहुधा देखा जाता है ।
आहार में लोहयुक्त पदार्थों का सर्वथा अभाव कई कारणों से हो सकता है जिनमें एक दरिद्रता है, दूसरा भोजन के पदार्थों में सलोह द्रव्यों को न लेना है । तीसरा शरीर के अन्दर लोहे का ठीक से प्रचूषण न होना है । आमाशय और अन्नप्रणाली के रोगों में भी लोहे का उपयोग उचित रूप में नहीं हो पाता और लोहाभावी उपवर्णिक सूक्ष्मकायाण्विक रक्तक्षय के दर्शन हो जाया करते हैं ।
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प्राथमिक उपवर्णिक रक्तक्षय ( Primary hypochromic anaemia ) अवस्था में होता है ।
प्रधानतया यह एक स्त्रीरोग है जो ३५ से ५० वर्ष की सगर्भावस्था में या सगर्भावस्था के बाद यह आरम्भ होता है चलता है | इसके लक्षण घातक रक्तक्षय के साथ मिलते हैं है । इसमें तुधानाश, अपच, विबन्ध, मासिकधर्म के उपद्रव, शिरःशूल, पाण्डुरता, दौर्बल्य तथा रक्तक्षय के अन्य लक्षण मिलते हैं । इस रोग में जिह्वा पक जाती है। चमकदार ( glazed ) हो जाती है और निगलने में बहुत दिक्कत पड़ती है ( इन लक्षणों को प्लूमर. विन्सन सहलक्षण (Plummer Vinson syndrome कहते हैं ) । आमाशयिक रस में अम्ल अल्पता हो जाने से अनीरोदता ( achlorhydria ) हो जाती है । कभी कभी प्लीहोदर भी मिलता है । नख बहुत भिदुर हो जाते हैं | खुवाकृतिक नख ( चम्मचनुमा नाखून - spoon-shaped nails ) इस रोग की विशेषता है । इसे सुषिरनखता - koilonychia - कहते हैं । यह सुषिर -
और काफी दिन तक पर होता यह उपवर्णिक