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विकृतिविज्ञान ४. अनुहृषतायुक्त प्राणियों में सैलीसिलेट्स, फिनासिटीन, एण्टीपाइरीन, क्यूबेब्स, क्विनीन, आयोडाइड्स, फास्फोरस, मर्करी, अल्कोहल, आर्सेनिक, बेंजोल तथा सल्फो नैमाइड वर्ग के द्रव्यों के कारण नीलोहा उत्पन्न हो सकता है।
५. रक्त के रोग जैसे सितरक्तता (ल्यूकीमिया) अचयिक या अनघटित रक्तक्षय, लसग्रन्थ्यर्बुद, घातक रक्तक्षय, प्रथमजात बिम्बाण्वपकर्ष आदि रोगों में बिम्बाणु घट जाते हैं पर बिम्बाणुओं के अतिशय ह्रास के साथ नीलोहोत्पत्ति होती हो यह आवश्यक नहीं है। ___आन्तरिक धरातलों से भी रक्तस्राव सम्भव है। वृक्क, कण्ठनाड़ी, नासा, महास्रोत तथा दृष्टिपटल तक से रक्तस्राव होता हुआ देखा जाता है। तीन सितरक्तता ( lenkaemia) में भी नीलोहा स्पष्टतया मिलता है। अनघटित या अचयिक रक्तक्षय में अस्थिमज्जा में सितकायाणु और रुधिराणुओं की निर्मिति में जहाँ बाधा पड़ती है उसी अनुसार बिम्बाणुओं का भी निर्माण नहीं हो पाता । लसग्रन्थ्यर्बुद और घातक रक्तक्षय में नीलोहा अधिक महत्त्वपूर्ण लक्षण के रूप में नहीं प्रकट होता है फिर भी जब कभी उत्पन्न हो भी जाता है तो यकृच्चिकित्सा के उपरान्त बिम्बाणुओं की संख्या बढ़ जाने पर शान्त हो जाता है।
प्राथमिक बिम्बाण्वपकर्षजनित नीलोहा-(Primary thrombocytopenic purpura ) इसे वल्हौंफामय ( Werlhoff's disease या Maculosus haemorrhagicus of Werlhofi ) या कारणविहीन रक्तस्रावीनीलोहा ( idiopathic purpura haemorrhagica ) कहते हैं।
इस अवस्था के साथ लालकों की संख्या में कमी का लक्षण अवश्य पाया जाता है जो किसी न किसी अंग में हुए रक्तस्राव के कारण उत्पन्न होता है। उस समय सितकायाणुओं की संख्या अवश्य ही बढ़ी हुई होती है। इस रोग में रक्त के बिम्बाणु (platelets ) बहुत ही कम हो जाते हैं । ५०००० या उससे नीचे उनकी संख्या का मिलना एक साधारण घटना है। कभी-कभी तो वे बिल्कुल भी नहीं होते । जो रहते भी हैं वे भी रूप और आकार में विकृत हो जाते हैं। यदि रक्तस्राव काफी गम्भीर हुआ तो उत्तरजात रक्तक्षय उत्पन्न हो जाता है। पर यह रक्तक्षय सदा उपस्थित ही रहे तथा कोई बहुत आवश्यक लक्षण इस रोग का हो ऐसा भी नहीं देखा जाया करता।
बिम्बाणुओं की कमी के कारण रक्तस्रवण काल ( bleeding time) बढ़ जाता है पर आतञ्चिकाल ( coagulation time ) वही रहता है। पर एक बात यह होती है कि जो आतञ्च ( clot ) बनता है वह सिकुड़ने (प्रत्याकर्षण-retraction) में असमर्थ हो जाता है। इस रोग में रक्तस्राव की प्रवृत्ति बहुत होती है। कभी कभी थोड़ा थोड़ा अन्तर देकर भी रक्तस्त्राव होता है। यह अन्तर रक्त में विम्बाणुओं की कमी बेशी पर घटता बढ़ता रहता है।
इसके मुख्य लक्षणों में रक्तस्राव मुख्य है जो त्वचा के अन्दर बहुधा मिलता है।
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