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रुधिर वैकारिकी
६२५ है रक्त के बिम्बाणुओं से घनास्त्रिकर का न निकलना। यह धनास्रिकर एक तो शरीर की क्षतिग्रस्त उतियों में बनता है दूसरे बिम्बाणुओं के अन्दर रहता है। स्तनकारी जीवों के अतिरिक्त शुद्र जीवोंके रक्त में जहाँ बिम्बाणु नहीं होते वहाँ आतंचन का कार्य क्षतिग्रस्त उतियों से निकले धनास्त्रिकर के द्वारा सम्पन्न होता है। यदि किसी प्रकार इस रक्त को क्षतिग्रस्त ऊति के सम्पर्क में न आने दिया जावे तो रक्त का आतंचन नहीं ही होता। साधारणतया मानव शरीर का रक्त सूची द्वारा बिना ऊतियों का सम्पर्क लाये निकाल लिया जावे और उसे पैराफीन लगी शीशी में रक्खा जावे तो थोड़े समय पश्चात् बिम्बाणु टूटने लगते हैं उनसे घनास्त्रिकर निकलने लगता है जो तन्त्विजन, पूर्वधनानि और चूर्णातु से मिलकर आतंच का निर्माण कर देता है। यदि किसी शोणप्रिय का रक्त इसी प्रकार की शीशी में सूई के द्वारा सीधा काढ़ कर लिया जाय तो ५.५ घण्टों तक बिम्बाणु ज्यों के त्यों देखे जाते हैं टूटते नहीं हैं इस कारण उनसे घनास्रिकर ( thrombokinase )निकलता नहीं है । और रक्त भी जम नहीं पाता उसमें आतंच का निर्माण घण्टों नहीं होता। पर जब कुछ घण्टों के बाद बिम्बाणु टूटते हैं तो तुरत रक्त जम जाता है। ___ इससे यह निश्चित हो जाता है कि पुत्र को माता के रक्त से ऐसे बिम्बाणु उत्पन्न करने की प्राप्ति होती है जो आसानी से विघटित होना या टूटना नहीं जानते । यही प्रवृत्ति घनास्रिकर की प्राप्ति में बहुत बड़ी बाधा बन कर खड़ी हो जाती है और अपार रक्तक्षति का कारण बन कर काल के कराल गाल तक में प्रवेश करा दे सकती है।
एक शोणप्रिय रोगी का साधारणतः पता तब तक नहीं चलता जब तक कि उसका दाँत न उखाड़ा जाय या उसे कोई चोट जिसमें उपरिष्ठ त्वचा कट गयी हो, न लग जाय। उपरिष्ठ त्वचा के कटने से या दाँत उखाड़ने से रक्त का जो प्रवाह आरम्भ होता है वह घण्टों तक नहीं रुकता है। सुई से चुभोने के बाद शोणप्रिय के रक्त का स्राव बहुत देर न होने का कारण है समीपस्थ क्षतिग्रस्त ऊतियों से घनास्रिकर की तुरत प्राप्ति हो जाना तथा रोगी का रक्त प्रवाह काल भी प्रकृत रहता है और पास की ऊतियों की प्रत्यास्थता (स्थिति स्थापकता-elasticity ) स्वाभाविक रहने से जल्दी ही स्थान बन्द (सील्ड) हो जाता है । गहरे कटावों से भी शोणप्रिय का रक्तस्राव बहुत काल तक नहीं होता क्योंकि पास की ऊतियाँ इतनी अधिक क्षतिग्रस्त हो जाती हैं कि उनसे प्रचुर परिमाण में आतंचियाँ ( coagulins ) बन जाती हैं जो निकल निकल कर रक्त में मिल आतंचोत्पत्ति कर देती हैं। अतः केवल उपरिष्ठ कटावों ( superficial cuts) ही शोणप्रिय में रक्तस्राव को अविरल गति से बहाने में समर्थ होते हैं और वहाँ बड़ी कठिनता से रक्त रोका जा सकता है। रक्त का जहाँ बहुत प्रवाह चल रहा हो तो रक्तावसेचन ( blood transfusion ) तुरत करने से पूर्वधनानि अच्छी मात्रा में पहुँच जाता है और रक्त के आतंचन का काल घट कर रक्त बन्द कर देता है। अतः
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