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afar वैकारिकी
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लेता है । अस्तु ब्वायड के मत में यह परिवर्तन गुणात्मक ( qualitative ) तथा इयत्तात्मक ( quantitative ) दोनों प्रकार का होता है ।
एक और कारण भी इसका दिया जा सकता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि दोष वाहिनी प्राचीर में रहता है। जिसके कारण रक्त का व्याव उसमें से होने लगता है । इस दोष को दूर करने के लिए रक्तस्थ बिम्बाणु स्थान स्थान पर अभिलाग उत्पन्न कर देते हैं । ऐसा करने में उनकी संख्या बहुत घट जाती है । कभी कभी तो वाहिनीप्राचीर पर आघात इतना तीव्र होता है कि सम्पूर्ण बिम्बाणुओं के समाप्त हो जाने पर भी उसकी पूर्ति नहीं हो पाती और रक्तस्राव होता रहता है अतः कोई भी क्रिया जिससे बिम्बाणुओं ( रक्तचक्रिकाओं ) की वृद्धि की जा सके इस रोग में लाभदायक सिद्ध होती है ।
लोहा के अन्य रूप
यतः नीलोहा एक रोग भी है जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है और दूसरे यह स्वयं एक लक्षण भी है जो विविध कारणों से किसी भी रोग में बन सकता है। अतः इसका एक पूर्ण सन्तोषजनक श्रेणीविभाजन नहीं किया जा सकता । आगे हम नीलोहा के निम्न अन्य रूपों को लिखकर इस विषय को समाप्त करते हैं । नीलोहा के दो मुख्य रूप देखने में आते हैं :
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एक कारण विहीन साधारण ।
दूसरा द्वितीयक नीलोहा ।
साधारण कारण विहीन नीलोहा
( simple idiopathic purpura )
इस रूप में न तो वैषिक और न औपसर्गिक ही कारण नीलोहोत्पत्ति के मिलते हैं । लक्षणों की भिन्नता के कारण ऐसा ज्ञात होता है कि विविध रोग विविध प्रकार के लक्षणों के साथ नीलोहा का भी एक लक्षण लिए हुए हों । इस वर्ग के नीलोहों में निम्न मुख्य हैं
१. साधारण नीलोहा ( purpura simplex ) - यह एक सैध प्रकार की अवस्था है । इसमें रक्तस्राव त्वचा तक सीमित रहता है और १-२ सप्ताह में ठीक हो जाता है ।
२. हैनकीय नीलोहा ( Henoch's purpura ) – यह भी एक बाल रोग ही है इसे अप्रतिषेधाभ नीलोहा ( anaphylactoid purpura ), रक्तस्रावी केशालय विषतोत्कर्ष ( haemorrhagic capillary toxicosis ) या वैषिक
लोहा (toxic purpura ) भी कहते हैं । यह उन नीलोहों के वर्ग का रोग है जो अविम्बाण्वपकर्षीय (non—thrombocytopenic ) कहे जाते हैं । इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अभी तक कोई दृढ मत स्थिर नहीं किया जा सका है । हैनकीय लोहा के साथ शीतपित्त ( urticaria ), शोफ, सन्धिशोफ तथा अन्य शरीरांगीय
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