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विकृतिविज्ञान
रक्तस्त्राव तथा तज्जन्य रक्तक्षय ( The Post-haemorrhagic Anaemias) इस वर्ग में वे सब अवस्थाएँ सम्मिलित हैं जिनमें वाहिनी के द्वारा रक्त का बाहर जाना और उसके उपरान्त रक्तक्षय का होना अवश्यम्भावी घटना होती है। किस कारण से वाहिनी क्षतिग्रस्त हुई उसका विचार करना उतना आवश्यक नहीं होता जितना रक्तस्राव और उसका प्रतिफल रक्तक्षय । वे अवस्थाएँ जिनमें रक्तस्राव होता है अधोलिखित मुख्य हैं
१. अभिघातजरक्तस्राव । २. जीर्णव्रणों से होने वाला रक्तस्राव । २. फुफ्फुस से होने वाला यक्ष्माजन्यरक्तस्त्राव । ४. कृमियों द्वारा उत्पन्न रक्तस्राव । ५. शोणप्रियता ( haemoplilia) तथा ६. नीलोहा (purpura)। रक्तस्राव के कारण रक्तचित्र में निम्नांकित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं:
१. रक्तस्राव के स्वरूप पर रुधिराणुओं की संख्या निर्भर करती है। उनका कभी कम, कभी मध्यम और कभी गम्भीर ह्रास होता हुआ देखा जाता है।
२. विरूपकायोत्कर्ष ( poikilocytosis ) पाया जाता है जिसके कारण लाल कणों का रूप विकृत हो जाता है।
३. लालकणों का असमतोत्कर्ष ( anisocytosis) खूब मिलता है और वे छोटे बड़े दिखलाई देते हैं।
४. बहुवर्णप्रियता ( polychromatophilia) मिल सकती है पर कम ।
५. विन्दुकीय तारप्रियता (punctate basophilia) भी कम ही पाई जाती है पर जब अत्यधिक रक्तस्राव हो चुका हो तब अवश्य इसमें वृद्धि हो जाती है।
६. यदि अस्थिमज्जा में रक्त के लालकणों का पुनर्जनन तीव्र गति से चल रहा हो तो जालक कायाणुओं ( reticulocytes ) की उपस्थिति भी देखी जा सकती है।
७. सन्यष्टि रक्तकण अधिक नहीं मिलते पर जो मिलते हैं वे होते अधिकतर ऋजुरुह ( normoblasts ) ही हैं।
८. लालकण बहुधा उपवर्णिक होते हैं।
९. लालकणों की आकृति सामान्य रहते हुए भी उनमें सूक्ष्मकायता ( microcytosis ) की ही प्रवृत्ति विशेष पाई जाती है।
१०. अस्थिमज्जा की क्रियाशीलता खूब बढ़ जाती है जिसका प्रत्यक्ष दर्शन लम्बी अस्थियों में होता है जहाँ पीतमजा का स्थान रक्तमज्जा लेकर रक्तनिर्माण कार्य आरम्भ कर देती है।
११. रक्त के सितकणों का निर्माण वेगपूर्वक होने लगता है जिसके कारण सितकायोत्कर्ष ( leucocytosis ) होने लगता है।
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