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विकृतिविज्ञान
purpura haemorrhagica ) से इसे पृथक् करना लगभग असम्भव या अति कठिन हो जाता है । घातक रक्तक्षय ( परनीशस एनीमिया ) में रक्तस्त्रावी जो लक्षण देखे जाते हैं वे यहाँ नहीं मिलते अर्थात् स्वचा का उपकामलिक वर्ण ( subicteric tinge ) नहीं मिलता रक्त की पित्तरक्ति ( bilirubin ) में वृद्धि नहीं होती । तथा मूत्र में मूत्रपित्ति ( urobilin ) अनुपस्थित या अत्यल्प पाई जाती है तथा सुषुम्ना के परिवर्तन भी नहीं मिलते ।
यह नहीं भूलना चाहिए कि इस रक्तक्षय में अस्थिमज्जा रक्त निर्माणकारी तोनों तय्व—–रक्तकणसंजनक ( erythropoietic ), श्वेकणसंजनक ( leucopoietic ) तथा बिम्बाणुजनक ( megacaryocytic ) ही अपना कार्य बन्द कर देते हैं । पर रक्तकणसंजनन की उत्पत्ति में बाधा के लिए ही अनभिघट्य रक्तक्षय शब्द का अधिकतर प्रयोग होता है । अकणकायात्कर्ष शब्द सितकोशीयसंजनन तथा मारात्मक बिम्बाण्व - पकर्ष ( malignant thrombocytopenia ) शब्द बिम्बाणुसंजनन की कमी के लिए प्रयुक्त होता है। क्योंकि इस रोग में बिम्बाणुओं की कमी हो जाती है अतः रक्तस्राव की प्रवृत्ति बराबर पाई जाती है । सितकोशापकर्ष होने से विनाशक व्रणन
necrotic ulceration ) मुख तथा अन्त्र में पाये जाया करते हैं । यकृत्प्लीहा तथा लसक ग्रन्थियों में महत्त्व का परिवर्तन नहीं होता फिर भी रुधिराणुओं की टूट फ्रूट के कारण शोणायस्युत्कर्ष ( haemosiderosis ) पाया जाता है । प्लीहा तथा लसक ग्रन्थियाँ इस रोग में कभी फूलती नहीं है ।
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इस रक्तक्षय के रक्तचित्र में सब प्रकार के कोशाओं की संख्या का घटते चले जाना मुख्यतया देखा जाता है। लालकण, श्वेतकण, बिम्बाणु सब कम हो जाते हैं । यद्यपि इस रोग में परिमाणात्मक या इयत्तात्मक ( quantitative ) परिवर्तन पर्याप्त होता है पर गुणात्मक या तत्तात्मक ( qualitative) परिवर्तन नहीं होता । इस कारण रक्त के लालकर्णीों की संख्या बीस लाख से दस लाख तक पाई जाने पर भी रंगदेशना १ के लगभग ही रहती है । फानडेनबर्धीय प्रतिक्रिया नास्त्यात्मक होती है । श्वेतकण ३ से ४ हजार प्रतिघन मिलीमीटर पाये जाते हैं । मृत्यु के समय वे २ हजार से नीचे चले जाते हैं बह्राकारियों की घटोतरी के कारण सापेक्षलसीकोशोत्कर्ष हो जाता है । असम, विद्रूप लालकण, बृहत्कायाणु, सन्यष्टिकोशा तथा जालकित ( reticulated ) कोशा इन विविध लक्षणों की उपस्थिति किसी भी रक्तक्षय में मिलना सम्भव है जो इस बात का प्रमाण है कि अस्थिमज्जा शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति जी-जान से कर रही है पर अनघटित रक्तक्षय में ये सब परिवर्तन नहीं ही मिलते। इसी कारण यहाँ लालक का स्वरूप स्वाभाविक होता है और रंगदेशना १ के आसपास रहा करती है । बिम्बाणुओं के घटने से नीलोहा ( purpura ) के लक्षण मिलने लगते हैं, श्लेष्मल कलाओं से रक्तस्राव होता है । रक्तस्रावकाल ( bleeding time ) विलम्बित ( delayed ) हो जाता है । यद्यपि आतंचिकाल ( clotting time ) स्वाभाविक रहता है यद्यपि आतंच सिकुड़ नहीं पाता । बिम्बाण्यपकर्षजनित रक्तस्रावी नीलोहा
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