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रुधिर वैकारिकी
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stage ) वह महत्वपूर्ण परिवर्तन है जो इस रोग में विशेषतया पाया जाता है जिसके कारण अस्थिमज्जा में अपुष्ट अप्रगल्भ कोशाओं की भरमार हो जाती है जो रक्तप्रवाह
जाने से रोक दिये जाते हैं। यह अवस्था अकणकायाणूत्कर्ष (agranulocytosis) की आरम्भिक अवस्था के समान ही होती है और हो सकता है कि दोनों की उत्पत्ति में कोई एक समान कारण ही उपस्थित होता हो। इस रोग में अस्थि की लाल मजा में बहुत ही थोड़े कोशा दिखलाई पड़ते हैं । रक्त के लालकण, मज्जकायाणु ( myelocytes ) तथा बृहन्न्यष्टिकोशा ( megacaryocytes ) सभी विलुप्त हो जाते हैं । यकृत्, वृक्कादि में उग्र रक्तक्षय के प्रमाणस्वरूप स्नैहिक विहास ( fatty degeneration ) पाया जाता है । इस रोग में शोणांशिक क्रिया ( haemolytic activity ) का कोई विशेष प्रमाण नहीं मिलता है पर यकृत् तथा अस्थिमज्जा में पर्याप्त शोणायस्युत्कर्ष ( haemosiderosis ) मिल सकता है । व्वायड के शब्दों में जब ब्लड्फैक्टरी अपना कार्य बन्द कर देती है तब अनघटित रक्तक्षय की उत्पत्ति होती है । अस्थिमज्जा द्वारा कामबन्दी निम्नलिखित कारणों से सम्भव है: :---
१. कई प्रकार की विषाक्त ओषधियाँ अस्थिमज्जा पर घातक प्रभाव डाल सकती हैं जिनमें धूप ( benzol ) तथा त्रिभूयविरालव ( trinitrotoluol ) मुख्य हैं । आर्सीनोबेंज़ोल, डाइनाइट्रोफीनोल, सल्फोनेमाइड्स तथा स्वर्ण रजत और पारद के योग तथा सीस ( lead ) भी इसे उत्पन्न कर सकते हैं ।
२. विकिरण द्वारा - तेजातु और क्ष-रश्मियाँ ।
३. कई औपसर्गिक रोगों की विधियाँ ( toxins ) जैसे— पूया ( sepsis ) तथा आन्त्रिक ज्वर (typhoid fever )।
४. घातक रक्तक्षय की अन्तिम अवस्था में जब अचय का स्थान परमचय ले लेता है और परिश्रान्त अस्थिमज्जा युद्ध एकदम बन्द कर देती है यदि इस समय अस्थियों को देखा जाय तो उनकी गुहाएँ स्नेह (फैट) से भरी हुई पाई जाती हैं जो एक विस्मयकारक स्थिति होती है ।
उपरोक्त चारों कारणों से होनेवाला अनघटित रक्तक्षय द्वितीयक या उत्तरजात कहलाता है । पर उसके अतिरिक्त प्रथमजात रक्तक्षय भी होता है जिसकी उत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डालना सम्भव नहीं होता उसे अज्ञात कारणजन्य (idiopathic) कहा जा सकता है । यह रोग यद्यपि बालकों में भी मिल सकता है । पर मुख्यतया स्त्रियों का रोग है जो उनके तारुण्यकाल ( १५ से ३० वर्ष ) में बहुधा देखा जाता है । पुरुषों में यह कम देखने में आता है । यह रोग बहुत ही उम्र होता है । इससे पीडित प्राणी कुछ सप्ताहों में ही असार संसार से बिदा लेने को बाध्य होते हैं । कभी-कभी यह महीनों तक रह सकता है ।
गम्भीर रक्तक्षय के अतिरिक्त रक्तस्राव और नीलोहिक लक्षण ( purpuric manifestations ) भी मिलने लगते हैं और तब तीव्र रक्तस्त्रावी नीलोहा ( acute
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