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विकृतिविज्ञान नखता घातक रक्तक्षय में बिल्कुल भी नहीं देखी जाती । भुजाओं और टाँगों में झुनझुनी ( parasthesia) मिलती है। नखभिदुरता-सुषिरनखता तथा जिह्वा की श्लेष्मलकला की अपुष्टि इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
आहार में दोष या आन्त्र द्वारा लोहे का ठीक ठीक प्रचूषण न होने के कारण यह रोग होता है इसी कारण लोहे का प्रचुर परिमाण में उपयोग करने से इसमें बड़ा लाभ होता है । सगर्भता तथा अत्यार्तव से यह बढ़ता है।
लक्षणों में सादृश्य होने पर भी रक्तजन्य परिवर्तन इस रोग में घातक रक्तक्षय के बिल्कुल विपरीत होते हैं। घातक रक्तक्षय जहाँ परम वर्णिक कहा गया है यह अवर्णिक ( achromic ) है । घातक रक्तक्षय में अस्थि मज्जा बृहद्रक्तरुहीय प्रतिक्रिया करती है पर यहाँ वह ऋजुरुहीय प्रतिक्रिया किया करती है । रक्त के लालकण न केवल संख्या में ही घट जाते हैं अपि तु शोणवर्तुलि की मात्रा तो उनमें और भी अधिक कम हो जाती है। इसी शोणवर्तुलि के अभाव से रंगदेशना निम्न और उपवर्णता या अवर्णता अधिक स्पष्ट हो जाती है। लालकणों का व्यास उनके प्रकृत व्यास से घटा हुआ होने से इसे सूचमकायाण्विक रक्तक्षय नाम दिया जाता है। इस रोग में रंगदेशना ०.४ से ०.५ तक मिलता है। लालकण की आकृति तथा रूप में फर्क हो जाता है वे पाण्डुर (pale ) हो जाते हैं जो थोड़े बड़े होते हैं उनके भीतर केन्द्र अरञ्जित होता है तथा चारों ओर कोशारस रंजित हो जाता है। लालकणों की सूक्ष्मता के बारे में ऊपर लिखा जा चुका है वे प्रायः ६.२ से ६.७ अणुम के व्यास वाले होते हैं। एक लालकण का औसत आयतन ७८ क्यूबिक माइक्रौन्स तथा औसत शोणवर्तुलि संकेन्द्रण ३२ प्रतिशत से नीचे और प्रायः २७ प्रतिशत होता है। इस रोग में श्वेतकण और रक्तबिम्बाणु की संख्या प्रकृत हुआ करती है जो कभी कभी घट भी जाया करती है। इस रोग में शोणांशन ( haemolysis ) नहीं मिलता जैसा कि घातक रक्तक्षय में देखा जाया करता है। सितकोशापकर्ष होने पर भी थोड़ा लसीकोशोत्कर्ष (lymphocytosis) मिल जाता है। बिम्बाणुओं की कमी से बिम्बाण्वपकर्ष ( thrombcy topenia) होता हुआ कभी कभी मिलता है। ___आखिर इस रोग का क्या कारण है ? यह प्रश्न उठता है। उसका बहुत सुन्दर उत्तर ब्वायड ने दिया है कि इस रोग का मुख्य कारण शरीर में लोहे की कमी है जिसके कारण
१. ऋजुरुह ( normoblasts ) वह शक्ति नहीं पाते जिससे उनका प्रगल्भन ( maturation ) हो जाय और वे लाल कण में परिणत हो सके। इसलिए वे शीघ्रता से लाल कणों में परिणत न होकर ऋजुरुहों के रूप में ही रक्त में बहुधा देखने में आते हैं।
२. ऋजुरुहों में भी शोण वर्तुलि का अणु ( molecule of the haemoglobin ) भी ठीक से निर्मित नहीं रहता। इसके परिणामस्वरूप अस्थिमज्जा ऋजुरुहों से
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