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रुधिर वैकारिकी
६०१ सुषुम्नाकाण्डजन्य विक्षत-प्रति बीस रोगी पीछे एक रोगी में सुषुम्नाकाण्डजन्य विक्षत पाये जाते हैं जिनका ज्ञान मृत्यूत्तर परीक्षणों में प्रायः हुआ करता है। सुषुम्ना के मुख्यतः पश्च (posterior) और साधारणतः पार्श्व (lateral) भाग में अनुतीव्र मिलित विहास ( subacute combined degeneration ) देखा जाता है । सुषुम्ना सूज जाती है। उसमें पाराभासी क्षेत्र स्थान स्थान पर प्रकट होने लगते हैं। ये पहले पश्च स्तम्भों ( lateral columns ) में दिखलाई देते हैं फिर पार्श्वस्तम्भों में फैलते हैं और अन्त में अग्र (anterior) स्तम्भों में भी देखे जा सकते हैं । अण्वीक्षण करने पर मजविकंचुकों ( medullary sheaths ) का विनाश और विह्रास देखा जाता है जिसके उपरान्त अक्षरम्भ विलुप्त होने लगते हैं। इन्हीं विक्षतों के कारण असंगति ( ataxia) तथा अंगग्रहण (spasticity ) जो पहले कह चुके हैं देखने में आते हैं। एक बात मुख्य है कि सुषुम्ना के विक्षत रक्तक्षय की तीव्रता के साथ सम्बद्ध नहीं होते । यही नहीं, कभी-कभी तो जब रक्तक्षय के होने में भी सन्देह होता है तब भी ये मिल जाया करते हैं । साथ ही संज्ञाशून्यता ( numbness ), झुनझुनी ( tingling ) तथा परचैतन्य (parasthesia) के जो लक्षण देखने में आते हैं उनके निर्माणकर्ता भी ये विक्षत नहीं होते। इसे सदा स्मरण रखना होगा।
अन्य परमकायाण्विक रक्तक्षय (१) अमजकीय रक्तक्षय (Achrestic anaemia)-यद्यपि यह रक्तक्षय घातक प्रकार के रक्तक्षय जैसा ही होता है पर इसमें कई अन्तर भी पाये जाते हैं जिनमें ३ मुख्य हैं :
१. अनीरोदता ( achlorhydria) का अभाव, २. वातिक लक्षणों ( nervous symptoms ) का अभाव, तथा ३. यकृच्चिकित्सा से कोई लाभ न होना
यह रक्तक्षय बहुत कम देखा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अस्थिमज्जा रक्तक्षयान्तक तत्व का उपयोग करने में असमर्थ हो गई हो इस कारण यह रक्तक्षय उत्पन्न हुआ हो । क्योंकि यकृत् का चिकित्सा की दृष्टि से प्रयोग करने से इस रोग में कोई लाभ नहीं होता । रक्तोत्पत्तिकर तत्व रोगी के शरीर में उपस्थित रहता है। उसकी कोई कमी नहीं रहती पर उसका उपयोग करके सरक्तमज्जा कुछ भी कर नहीं पाती । इस रोग में रक्तचित्र तीव्र बृहद्क्ताणुजन्य ( megalocytic ) परमवर्णिक रक्तक्षय का मिलता है । रुधिराणुधों के सकल गणन की दृष्टि से उनकी संख्या बीस लाख प्रति घन मिलीमीटर से नीचे रहती है। रंगदेशना १ से ऊपर पाई जाती है।
(२) ग्रहणी जन्य रक्तक्षय (Anaemia due to sprue)-ग्रहणी एक उष्णकटिबन्धीय आन्त्रिक व्याधि है जिसमें आध्मान का पाया जाना, प्रचुर परिमाण में मेदयुक्त पुरीष का परित्याग, जिह्वा की अपुष्टि तथा आन्त्रिक श्लेष्मलकला की अपुष्टि और
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