________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६०४
विकृतिविज्ञान . चरक ने जो विविध ग्रहणियों में हृत्पीडा, कार्य, दौर्बल्य, बलक्षय, आलस्य, तिमिर, कर्णस्वन आदि लक्षण गिनाए हैं वे सभी इसी विशिष्ट रक्तक्षय के कारण होते हैं। मृत्यूत्तर परीक्षा करने पर इस कार्य का प्रमाण यहाँ तक मिला है कि पेशियों सब स्नेहविरहित और पतली, हृदय का आकार छोटा, औदरिक अंगों के आकार घटे हुए तथा महास्रोत भी अत्यधिक अपुष्ट मिला है।
अन्य बृहत्कायाण्विक रक्तक्षयों का कारण आहार में बाह्यकारक की कमी भी देखी जाती है जिसके विना रक्तोत्पत्तिकर (रक्तक्षयान्तक ) तत्व का निर्माण ही नहीं होता।
(३) पर्णिकाम्लाभाव (फोलिक एसिड की कमी)-विटामीन बी कम्प्लेक्स परिवार का एक सदस्य पर्णिकाम्ल पत्रिकाम्ल या फोलिक एसिड भी है। इस अम्ल की जब कभी किसी प्रयोगिक जन्तु में कमी कर दी जाती है तब बृहत्कायाण्विक रक्तक्षय की उत्पत्ति हो जाती है, साथ ही कणकोशापकर्ष ( granulocytopenia ) भी हो जाती है। अन्त्र के दण्डाणुओं के द्वारा यह अम्ल आन्त्र में निर्माण किया जाता है। यदि इस दण्डाण्विक क्रिया को रोकना हो तो सक्सीनिल सल्फाथियाज़ोल खिलाना आवश्यक है । इस द्रव्य के खिलाने से फोलिक एसिड का प्रकृत निर्माणकार्य रुक जाता है जो बृहत्कायाण्विक रक्तक्षय को उत्पन्न कर देता है। इसी आधार पर आजकल रक्तक्षयरोध में फोलिक एसिड का भी महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है। इसके उपयोग से रक्तक्षय में आश्चर्यजनक लाभ देखने में आया है ।
। (४) विस्तृत द्विनालशिरकृमि जन्य रक्तक्षय (anaemia due to diphyllobothrium latum ) भी बृहत्कायाण्विक तथा परमवर्णिक ही होता है । द्विनालशिर यह एक पराश्रयी कृमि है जो मछली खाने वालों में मिलता है। इन मत्स्यभक्षियों में से थोड़े से लोगों में ऐसा रक्तक्षय हो जाता है जो घातक रक्तक्षय के साथ पूर्ण समानता रखता है। इन रोगियों में से ८० प्रतिशत में अनीरोदता ( achlorhy. dria) या अनम्लता उपस्थित रहती है। इस रक्तक्षय को दो प्रकार से दूर किया जाता है। इनमें एक है आँतों से कृमि का निष्कासन और दूसरा है यकृच्चिकित्सा का आरम्भ करके रक्तोत्पत्तिकर तत्व को शरीर में पहुँचाना। कृमि के नष्ट हो जाने से जहाँ रोग स्वतः दूर हो जाता है वहाँ कृमि के रहते हुए केवल यकृत् का चिकित्सात्मक प्रयोग भी रक्तक्षय को दूर कर देता है। इससे ब्वायड को यह शक बढ़ गया है कि कृमि के अतिरिक्त कोई अन्य कारक इस रक्तक्षय का कर्ता है तथा यह कारक रक्तक्षयान्तक तत्व का सगोत्रीय ही होता है। इस सम्बन्ध में एक महत्त्व की बात भी स्मरण रखनी चाहिए। यह यह कि जापान में मछली मनुष्यों का मुख्य आहार होने के कारण मत्स्य-द्विनालशिरीय पट्ट कृमि ( tapeworm) का उपसर्ग बहुधा देखने में आता है पर वहाँ पर यह रक्तक्षय बिल्कुल भी नहीं पाया जाता । परन्तु फिनलैण्ड में जहाँ के निवासी भी मत्स्यभक्षी होते हैं यह पट्ट कृमि और उसके साथ
For Private and Personal Use Only