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विकृतिविज्ञान कहाँ होती है यह प्रश्न नहीं है। प्रश्न तो यह है कि किसकी आज्ञा से और किसके संचालन में यह क्रिया सम्पन्न होती है। सो तो पूर्णतः स्पष्ट है कि यकृत् में संग्रहीत तत्व जिसे रक्तोत्पत्तिकरतत्व ( haemopoitic factor ) या जिसे रक्तक्षयान्तक तत्व ( anti anaemic factor) कहते हैं वही इसका कर्ता होने से रक्तोत्पत्ति का मूलस्थान यकृत् ही बैठता है, जहाँ उसका संचालक रहता है। उस संचालक (रक्तोत्पत्तिकर तत्व ) का निर्माणकेन्द्र अस्थियों में निहित अवकाश में स्थित मज्जा होती है। मजा गौण और यह तत्व प्रधान है । आधुनिक फिजियालोजी अभी तक पूर्ण प्रगल्भ नहीं हो पाई इसलिए निश्चिति से यह नहीं कहा जा सकता कि केवल यकृत् ही रक्तोत्पत्ति के संचालन का संचयकर्ता है । सम्भव है कालान्तर में किसी ऐसे भी तत्व का पता लगे जिसकी उत्पत्ति और उपस्थिति प्लीहा में निहित हो जो रक्तोत्पत्ति में प्रत्यक्ष भाग लेता हो। क्योंकि रक्त के लस्यकों का विघटन प्लीहा में होता है। विघटन क्रिया जहाँ चल रही हो वहाँ उनके निर्माण के लिए साथ-साथ आह्वान न किया जा रहा हो, यह असम्भव है क्योंकि परमात्मा की बनाई सृष्टि में क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों एक साथ उत्पन्न होती और बढ़ती हैं। ____ महास्रोत में पाये जाने वाले विक्षत मुख्यतः आमाशय और जिह्वा पर प्रकट होते हैं । रोग के आरम्भ से ही वेदनावती जिह्वा पाई जा सकती है। घातक रक्तक्षय से मरने वाले रोगियों में जिह्वापाक एक मुख्य लक्षण मिलता है। उसका वर्ण अग्नि के समान लाल देखा जाता है। जीर्ण रुग्णों में जिह्वा अपुष्ट और सपाट हो जाती है। उसके ऊपर के अंकुर नष्ट हो जाते हैं। श्लेष्मलकला तथा पेशी भी अपुष्ट होती हुई देखी जाती है । जिह्वा को जिस कष्ट का सामना करना पड़ता है वैसा ही कष्ट मानवेतर प्राणियों में मानवों ने जिन प्रक्रियाओं द्वारा प्राप्त किया है वे ही यहाँ भी कारणभूत होंगी ऐसा लोगों का मत है। तदनुसार जिह्वा की सारी आपदाएँ तभी सम्भव हैं जब रोगी को प्रचुर परिमाण में जीवद्रव्य (vitamins) न मिल सकें। अस्तु, घातक रक्तक्षय में अजीवितिक्त्युत्कर्ष (avitaminosis ) ही जिह्वारोगों का जनक माना जाता है। इसी प्रकार आमाशय का ऊर्ध्व ३ भाग दुर्बल और अपुष्ट होता चला जाता है। वह इतना पतला हो जाता है कि देखने मात्र से ही सरलतापूर्वक उसका बोध कर लिया जा सकता है। यह अपुष्टि आमाशय के सभी आवरणों में पाई जा सकती है । इसके कारण आमाशयिक श्लेष्मलकला से अम्लजनक कोशा ( oxyntic cells) तथा पाचिकोशा ( peptic cells ) विलुप्त हो जाते हैं। आमाशय पिण्ड और मुद्रिकीय श्लेष्मलकला जहाँ मिलती हैं वहाँ सहसा परिवर्तन मिलता है और श्लेष्मलकला वहाँ ऋजु मिलती है। इन परिवर्तनों का रक्तक्षय से मौलिक सम्बन्ध मालूम पड़ता है । जो लोग आँतों में भी इन अपुष्ट और व्रणात्मक विक्षतों की कल्पना करते हैं वे भ्रम में हैं। क्योंकि यदि मृत्यु के तुरत बाद फार्मेलीन का इंजेक्शन शव में कर दिया जावे तो फिर ये परिवर्तन आँतों में नहीं मिलते जिससे सिद्ध यह हुआ कि आँतों में मृत्यूत्तरकालीन क्रियाएँ उन्हें जन्म देती हैं, रोग नहीं (ब्वायड)।
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