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विकृतिविज्ञान ( coeliac disease ) तथा संग्रहणी (sprue ) में इस रोग की उपस्थिति का यही मुख्य कारण दिखलाई देता है। ___ हमने यह देखा कि बाह्य या आभ्यन्तरिक कारक के अभाव से रक्तोत्पत्तिकर ( रक्तक्षयान्तक ) तत्व के निर्माण में बाधा पड़ सकती है तथा उसके बन जाने पर भी उसका ठीकठीक प्रचूषण न होने से भी रक्तक्षय आ उपस्थित होता है। आभ्यन्तरिक कारक का उत्तरोत्तर अभाव अनीरोदता, पाचि का अभाव, तुधानाश, श्लैष्मिक स्रावाल्पता आदि लक्षण कर सकता है। यह सब हमें आयुर्वेदज्ञों द्वारा प्रतिष्ठित 'अग्नि' की कल्पना को समझने के लिए अच्छा अवसर प्रदान करता है। जिसे उन्होंने 'अग्नि' नाम से प्रगट किया है वह आभ्यन्तरिककारक हो सकता है जिसके अभाव से रक्तोत्पत्ति में प्रत्यक्ष बाधा आ सकती है और अनेक उपद्रव उठ खड़े होते हैं। आमाशय को अग्नि का अधिष्ठान माना गया है । ग्रहणी भी अग्नि के निर्माण और सक्रियता से सम्बद्ध है। आधुनिक विचारक आमाशय तथा ग्रहणी दोनों में ही रक्तोत्पत्तिकर तत्त्व का निर्माण
मानते हैं।
यदन्नं देढ्यात्वोजोबलवर्णादिपोषकम् । तत्राग्निर्हेतुराहारान्न ह्यपक्काद रसादयः॥ इसमें अन्न को जो वर्णपोषक बतलाया है वह उसमें निहित बाह्यकारक की ओर निर्देश है। विना उसके रक्तनिर्माण नहीं हो सकता और विना रक्तनिर्माण के रोगी के वर्ण का पोषण भी नहीं हो सकता। फिर उस अन्न को परिपक्क करने का हेतु जाठराग्नि बतलाई गई है। जठर में स्थित अग्नि जिसके अभाव से पाचि (पैप्सीन) तथा आमाशयिक अम्ल का निर्माण और उत्सर्ग नहीं हो पाता वही तो अग्नि है और वह आभ्यन्तरिक कारक की ओर स्पष्ट संकेत है। इस अग्नि के शान्त हो जाने से मनुष्य जी नहीं सकता उचित रूप में रहने से निरामय जी सकता है और विकृत हो जाने से रोगी हो जाता है
शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरंजीवत्यनामयः । रोगी स्याद विकृते मूलमग्निस्तस्मान्निरुच्यते ॥
जैकबसन का कथन है कि रक्तोत्पत्ति क्रिया में बाह्य तथा आभ्यन्तरिक कारकों का सम्मेलन आमाशय के आर्जेण्टाफिन कोशाओं ( argentaffin cells of the stomach ) में होता है। ये कोशा आमाशय के पिण्ड ( body ) में नहीं पाये जाते अपि तु उसके हार्दिक भाग (cardiac part) तथा मुद्रिका भाग (pyloric part) में पाये जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि अग्नि का पूर्ण विनाश घातक रक्तक्षय का जनक होता है । अग्निनाश के कारण रक्तोत्पत्ति सम्भव नहीं होती रक्त की कभी वातकारक होती है जिसका परिणाम वात संस्थान पर पड़ता है। इसीलिए इस रोग में सुषुम्ना में विक्षत पाये जाते हैं जिनका वर्णन आगे यथास्थान हम करेंगे।
घातक रक्तक्षय का स्वरूप हमें इस रोग के सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य मिलते हैं:१. यह प्रौढ़ावस्था में होने वाला रोग है जो स्त्री पुरुषों में समान रूप से पाया
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