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रुधिर वैकारिकी
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करती है । कूफर कोशाओं में उनकी उपस्थिति बहुत कम रहती है या उनका सर्वथा अभाव हो जाता है । यकृत् में मज्जाभ ( myeloid ) क्षेत्र भी मिल सकते हैं ।
प्लीहा थोड़ी परिवृद्ध हो जाती है । अण्वीक्षण करने पर उसके जालिकान्तश्छदीय कोशाओं में भक्षिकोशीय क्रियाशीलता में वृद्धि का होना पाया जाता है इन्हीं भक्षिकोशाओं में रंगा तथा लालकणों के टुकड़े पाये जाते हैं। प्लीहा देखने में गहरी लाल तथा स्पष्टतः सूजी हुई दृष्टिगोचर होती है । रोग के पुनराक्रमण ( relapse ) में प्लीहा के ये परिवर्तन अधिक बढ़ जाते हैं । अयस्-रंगा का सञ्चय यहाँ होता है पर लोहोत्कर्षं ( siderosis ) उतने परिमाण में नहीं मिलता जैसा कि यकृत् में पाया जाता है। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि यद्यपि प्लीहा का कार्य रक्ताणुओं का विनाश करना है पर लोहे के रंगा का सञ्चय प्लीहा की अपेक्षा यकृत् में कहीं अधिक होता है । इसमें मज्जकोशा ( myelocytes ) तथा सन्यष्टि रक्ताणुओं ( nucleated red cells ) के छोटे छोटे क्षेत्र खूब पाये जाते हैं । यह स्मरण रखना चाहिए कि इस रोग में लसग्रन्थकों पर कोई महत्व का प्रभाव पड़ता हुआ नहीं देखा जाता ।
वृक्कों में भी वही दो परिवर्तन - स्नैहिक विहास तथा लोहोत्कर्ष देखने में आते हैं पर यहाँ यकृत् की अपेक्षा हानि कम पाई जाती है । अन्य अङ्गों की भी स्थिति थोड़ी या बहुत इसी प्रकार की रहा करती है ।
घातक रक्तक्षय में अस्थि मज्जा में सक्रियता बहुत बढ़ जाती है। यही नहीं लम्बी अस्थियाँ जो पीत मजा से भरी रहती हैं उनमें भी रक्तनिर्माण का कार्य चल पड़ता है और उनकी पीतमज्जा रक्तमज्जा में परिणत होने लगती है । यह परिवर्तन ऊर्वस्थि में पहले और जंघास्थि में बाद में देखा जाता है। यही नहीं, प्रगण्डास्थि तथा ऊर्वस्थि के ऊपरी सिरों पर जहां रक्ताभ मज्जा थोड़ी बहुत पाई जाया करती है वहीं से मज्जा का रक्तवर्णीकरण आरम्भ होता है । पर यह रक्तवर्णता हर स्थान पर एक सी नहीं चलती, अण्वीक्षण करने पर एक स्थान खूब गहरा लाल देखने में आता है तो दूसरा कुछ कम तीसरा क्षेत्र पूर्णतः पीला भी हो सकता है । अस्थि के अन्दर यह जो परमचय की क्रिया चलनी प्रारम्भ होती है उसके परिणामस्वरूप अस्थि मज्जा गुहा की दण्डिकाओं ( trabeculae of the medullary cavirty ) का प्रचूषण होने लगता है जिससे यह गुहा अस्थिदण्ड के मूल्य पर बढ़ने लगती है ।
रक्तस्राव के पश्चात् जो कार्यकारी परमचय ( functional hyperplasia ) पाया जाता है वैसा परमचय इस समय नहीं मिलता। क्योंकि वह प्रतिक्रिया ऋजुरुहात्मक होती है जबकि यहाँ पर परिवर्तन बृहद्रक्तरुहात्मक ( megaloblostic ) होता है । बृहद्रक्त कोशा का परिवर्तन सीधा बृहत्कायाण्विक कोशाओं ( macrocytes ) में हो जाता है । साथ ही प्रगुणन का अभाव रहता है । केवल जब यकृत् के अन्दर रक्तोत्पादक तत्व का अभाव हो जाता है तभी बृहद्रक्त कोशाओं का प्रादुर्भाव होता है वैसे उनका कोई महत्वपूर्ण स्थान गर्भोत्तरकालीन जीवन में सामान्य
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