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afar वैकारिकी
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जाता है फिर भी स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा पहले रोग का आक्रमण होता हुआ देखा गया है।
२. रोगी रोग से इतनी मन्द गति से आक्रान्त होता है कि उसे यह पता ही नहीं चलता कि रोग उसे कब से आरम्भ हुआ है 1
३. रोग के बीच-बीच में उपशम का भी काल चलता रहता है जिसमें रोग लक्षण ठीक हो जाते हैं और रक्त का चित्र भी प्रकृत हो जाता है ।
४. केवल असाधारण अवस्थाओं में कई सप्ताहों में ही रुधिराणुगणन १ लाख से ३ लाख तक चला जा सकता है ।
५. यकृचिकित्सा के आगमन के पूर्व यह एक अतीव घातक रोग माना जाता रहा है । और उससे प्राणरक्षा बहुत कठिन हुई है ।
६. पाण्डुता ( pallor ), अल्पश्वास, हृत्स्पन्दनानुभव ( palpitation of the heart ) तथा शोफ आदि रक्तक्षय में सर्वसाधारणतया पाये जाने वाले लक्षण उत्तरोत्तर वृद्धिंगत रूप में पाये जाते हैं ।
७. अनीरोदता ( achlorhydria ) या आमाशयिक रसाभाव ( achylia gastrica ) इस रोग में मुख्यतया पाया जाता है। अनीरोदता (अनम्लता ) में केवल आमाशयिक अम्ल की उत्तरोत्तर कमी होती जाती है तथा रसाभाव में आमाशयिक रस जिसमें अम्ल तथा कई विकर ( enzymes - pepsin rennin आदि) कम होते चले जाते हैं । इस रोग में पूर्ण अनीरोदता या अम्लाभाव दृष्टिगोचर होता है । इतनी अनम्लता आमाशयिक कर्कट में भी नहीं पाई जाती जितनी कि घातक रक्तक्षय में देखने. आती है।
८. आमाशय में अम्लाभाव रक्तक्षय आरम्भ होने के कई सप्ताह पूर्व ही उत्पन्न हो जाता है। इसके साथ साथ सुधानाश ( loss of appetite ) एक दूसरा मुख्य लक्षण है जो कभी कभी घातक रक्तक्षय की ओर इङ्गित न करके आमाशयिक कर्कट का भ्रम उत्पन्न कर देता है ।
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९. घातक रक्तक्षयी के रक्त के चित्र में परिवर्तन हों या न हों पर कभी-कभी सुषुम्ना काण्ड में कुछ लक्षण देखे जाते हैं । इनमें संचालनाभाव ( ataxia ), संज्ञाविक्षोभ ( sensory disturbances ), अंगग्रह ( spasticity ) तथा टांगों की अस्थियों में आवेषाभाव ( loss of vibration sense in the bones of the legs ) मुख्य हैं । इन लक्षणों का रक्त के चित्र से मेल हो ऐसा आवश्यक नहीं है। अर्थात् ये लक्षण स्वतन्त्रतया उत्पन्न होते हैं ।
१०. उपरोक्त लक्षणों के अतिरिक्त कुछ साधारण वातिक लक्षण भी इस रोग में देखने में आते हैं इनमें हाथ पैरों में संज्ञाशून्यता ( senselessness ), उत्तेजना ( tingling sensation ), पर चैतन्य ( parasthesia ) आदि का अनुभव
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