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रुधिर वैकारिकी
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सकता है । थोड़ा आघात लगने से त्वचा के नीचे रक्तस्राव ( ecchymoses ) का होना साधारण घटना है । इसी प्रकार श्लैष्मिक कलाओं में भी तनिक आघात रक्तस्रावोत्पत्ति कर सकता है । शरीर के भीतरी अंगों में भी रक्तस्राव का कारण इनकी कमी हो सकती है । यद्यपि आतञ्चनकाल ज्यों का त्यों रहता है । यद्यपि रक्त का आतञ्च यथापूर्व बनता है पर आतञ्च का संकोच यथापूर्व न होने से रक्तस्रावी स्थान से रक्त का स्त्राव जारी रहता है और रक्तस्राव काल ( bleading time ) लम्ब हो जाता है । केशाओं में भी प्रतिरोधक शक्ति घट जाती है । इस कारण थोड़ी देर (२ मिनट) के लिए भी यदि किसी अङ्ग को दबाकर उसका रक्तसंवहन रोक दिया जाय तो आसपास रक्तस्त्राव के धब्बे आसानी से देखे जा सकते हैं । इस उपद्रव को नीलोहा ( purpura ) कहा जाता है जिसका विस्तृत वर्णन आगे यथास्थान किया जावेगा ।
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सितकोशा ( White Blood Corpuscles )
यद्यपि सितकोशाओं का नामस्मरण हम इस पुस्तक में पृष्ठ १४-१५ पर कर चुके हैं पर यहाँ उस पर एक बार पुनर्विचार करना आवश्यक है ।
हम पहले कह चुके हैं कि रक्तमज्जा के प्रारम्भक जालक जिसे शोणकोशरुह ( हीमो साइटोब्लाष्ट ) कहते हैं, के द्वारा रक्त में पाये जाने वाले सभी कोशाओं का निर्माण होता है । रक्तबिम्बाणु, रुधिराणु दोनों उसी से बने हैं। उसी से सितकोशाओं (leucocytes) का निर्माण भी होता है । रक्त के बाहर के प्ररसकोशा ( plasma cells ) का निर्माण भी इसी से होता है । यह सारा वर्णन शरीरव्यापारशास्त्र के अन्तर्गत पढ़ा जा चुका होने से अति संक्षेप में हम इसे दुहरा रहे हैं। रक्त के ये श्वेत कण या सितकोशा ३ वर्गों में विभक्त किए जा सकते हैं। इनमें एक को कणकायाणु (granulooytes) कहते हैं । ये सशाख जालक कोशाओं द्वारा विस्फारित स्रोतसों ( dilated sinuses ) के बाहर बनते हैं । ये विभक्त हो होकर प्रगुणन करते हैं और उनकी यह श्रेणियाँ बन जाती हैं । इनमें एक श्रेणी मज्जरुहों (myeloblasts) की होती है । ये कणरहित, गोलन्यष्टिनिन्यष्टियुक्त होते हैं तथा इनका कायाणुरस चारप्रिय ( बेसोफिल ) होता है । इनसे बनी दूसरी श्रेणी मज्जकोशाओं ( myelocytes ) की होती है जिनमें कण होते हैं तथा तीसरी श्रेणी सितकोशा ( leucocytes ) की बनती है जो न्यूट्रोफिल इओसीनोफिल ( उपसिप्रिय ) तथा बेसोफिल ( क्षारप्रिय ) में उनके रंग ग्रहण करने के गुणों के अनुसार नामकरण हो जाता है । इस प्रकार -
1
शोणकोशरुह 1
मज्जरुह
क्रम बनता है ।
मज्जकोशा
/
सितकोशा (बहुन्यष्टि, उपसिप्रिय, क्षारप्रिय )
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