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विकृतिविज्ञान कायाणूत्कर्ष पर विचार प्रकट किये हैं पर एक तीसरे प्रकार से भी यह रोग उत्पन्न हो सकता है और उसमें न ओषधीय अनुहृषता और न जीवाणुजन्य विषता ही कारण होती है। क्या या कौन हेतु उसकी उत्पत्ति में कारण होता है नहीं कहा जा सकता उसे अज्ञात हेतुजन्य ( idiopathic ) अकणकायाणूत्कर्ष मानना चाहिए। __ यह रोग पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक होता है क्योंकि मनोदैन्य (न्यूरैस्थीनिया) से वे ही अधिकतर पीडित हुआ करती हैं। स्त्रियों को प्रायः ४० वर्ष के बाद यह मिलता है।
अब यह जानना भी परम लाभप्रद है कि इस रोग के क्या लक्षण होते हैं। लक्षणों की दृष्टि से इसके तीव्र और जीर्ण दो रूप होते हैं। तीव्र स्वरूप होने पर सज्वर गलपाक ( soreness of the throat with fever ) तथा ग्लानि ( malaise ) पाई जाती है। रोग द्रुतवेग से बढ़ता है जिसके कारण तुण्डिकेरियों, गलतोरणिकाओं तथा मुख की श्लेष्मलकला में अत्यधिक व्रणन ( ulceration ) हो जाता है। कभी कभी योनि और भगप्रदेश में भी वणन मिलता है। महास्रोतीय श्लेष्मलकला में भी मुख्य रूप से मलाशय में वणन मिल सकते हैं। रक्त में बह्वाकारियों ( polymorphs) की अनुपस्थिति के कारण कोई भी रोगकारी जीवाणु रुग्ण शरीर पर अपना प्रभाव दिखा सकता है। जिसके कारण रोगाणुरक्तता (septi. caemia ) देखी जा सकती है । रोगी अत्यन्त दुर्बल हो जाता है तथा थोड़े समय में ही कालकवलित हो जाता है। इस रोग का प्रभाव कभी कभी मुख, कण्ठ तथा हन्वस्थि पर भी पड़ सकता है जिसके कारण कोथात्मक (gangrenous) विक्षतों का भी निर्माण हो सकता है। जो वणन ऊपर बतलाया गया है वह रोग का हेतु है या परिणाम इसकी अभी पुष्टि नहीं हो सकी है। ___ जीर्णस्वरूप होने पर ज्वर के साथ गले में कभी कभी पाक होता रहता है तथा ग्लानि या खिन्नता बनी रहती है स्त्रियों में मासिकधर्म के समय भी प्रायः ये लक्षण प्रकट होते हैं। ___ अस्थिमजा तीव्र स्वरूप के रोग में कणात्मक सितकोशाओं के निर्माण में असमर्थ हो जाती है । जिसके कारण वे अधिकतर विलुप्त हो जाते हैं उनके पूर्वज कोशाओं में परमचय हुआ रहता है। तत्व इसका यह है कि इन पूर्वज कोशाओं से प्रौढन होकर कणात्मक कोशाओं की उत्पत्ति नहीं हो पाती इस कारण वे रक्तप्रवाह में आने में असमर्थ रहते हैं। इसी को ब्वायड ने अतिशयता में दरिद्रता ( poverty in plenty ) माना है । यह अवस्था मारात्मक या घातक रक्तक्षय में खूब मिलती है। अधिक दिन बीत जाने पर मजकीय ऊति में अल्पचय होने लगता है इस कारण उसमें कणात्मक कोशाओं की निर्मिति न होकर प्ररसकोशा तथा लसीकोशा अधिक संख्या में उपलब्ध होते हैं । रक्त के लालकण (रुधिराणु) इस रोग में यथावत् रहते हैं ।
यह रोग असाध्य स्वरूप का होता है फिर भी पेशीवेध द्वारा पेण्टन्यूक्लिओटाइड
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