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अर्बुद प्रकरण
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है जिसकी प्राचीर में अर्बुद लटका रहता है। इसमें कई कोष्ठक बन सकते हैं । अर्बुद के बाहर बड़े कोष्ठकों में एक तरल एकत्र हो जाता है जिसके प्रचूषण के उपरान्त पुनः तरल भर जा सकता है । वयस्कों का ताराकोशार्बुद अधिक कोशीय होता है और कहीं कहीं तो श्लेष हार्बुद का रूपान्तर मात्र प्रतीत होता है । पर अण्वीक्षीय चित्र श्लेष - हार्बुद से बहुत अलग होता है इसमें कोशा कम पर आकृति और रूप में एक से होते हैं । कभी कभी विहासात्मक परिवर्तनों के कारण कोशाकाय में सूजन और काचरीकरण मिल जाता है और उसकी न्यष्टि एक ओर को सरक जाती है । प्रमस्तिष्क में कोशीयता अधिक और विभजनाङ्कोपस्थिति मिल सकती है । कोशा अनेकों श्लेषकोशाओं द्वारा पृथक् रहते हैं । अर्बुदीय ताराकोशा एक जगह इकट्ठे और घिरे रहने से अन्य स्वस्थ ताराकोशाओं की अपेक्षा अधिक लम्बे हो जाते हैं । इनमें वाहिनीय पादपट्ट ( vascular foot plate ) भी नहीं होती । रक्तवाहिनियाँ इस अर्बुद में असंख्य होती हैं । अर्बुद की एक विशेषता यह है कि इसमें वातनाडी कोशा अर्बुद कोशाओं के बीच बीच में ऋजुरूप में मिलते हैं । इसका कारण यही हो सकता है कि अर्बुद कोशाओं में विनाशक शक्ति बहुत अधिक नहीं रहती । चूर्णीयन भी मिल सकता है जो क्षरश्मि-चित्रण द्वारा स्पष्ट हो सकता है । अर्बुद के चारों ओर श्लेषोत्कर्ष नहीं मिलता । इस अर्बुद की सीमा का निर्धारण भी बहुत कठिन होता है ।
विमज्जिहार्बुद
दुतवृद्धिशील और अतिदुष्ट यह अर्बुद बालकों में उत्पन्न होता है और चतुर्थ निलय की छत पर निमस्तिष्क की मध्यरेखा में प्रकट होता है । यह मृदुल आरक्त धूसर पिण्ड का निर्माण करता है जो चतुर्थ निलय को भर कर स्पष्टतः उदक मस्तिष्कोत्पत्ति ( formation of hydrocephalus ) कर सकता है । जिस प्रकार श्लेषरुहार्बुद वयस्कों की मृत्यु बुलाता है उसी प्रकार यह बालमृत्युकारी होती है । यह अर्बुद ही अकेला ऐसा है जो मृदुतानिका ( piamater ) भेदने की शक्ति रखता है तथा ब्रह्मोदकुल्या ( subarachnoid space तक फैल सकता है । अण्वीक्षीय चित्र पूर्णतया अविभिनित होता है जैसा कि गोल कोशीय संकटार्बुद में मिलता है । यह अर्बुद अतिकोशीय और तन्तुक विरहित होता है । इसके अधिकांश कोशा गोल और कुछ गर्जराकृतिक होते हैं । इसके कोशा रक्तवाहिनियों के किनारे किनारे समूहित रहते हैं और कूटवृत्तिका ( pseudo rosette ) का निर्माण करते हैं । ये निलयस्तरीयार्बुद की वृत्तिकाओं से भिन्न होती हैं क्योंकि इनके केन्द्र में सुषिरक नहीं होते ।
निलयस्तरार्बुद
यह अर्बुद पूर्वोक्त तीनों अर्बुदों से कम उत्पन्न होता है । यह विमज्जिरुहार्बुद से दो बातों में मिलता है । एक तो यह कि यह बालकों का रोग है दूसरे यह भी चतुर्थ निलय के फर्श या छत पर होता है। उससे भिन्नता भी दो बातों में है जिनमें एक इसका अत्यधिक विभिनित होना है और दूसरा उससे कम मारात्मक होना है । यह
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