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विकृतिविज्ञान
एक प्रकार जालककोशाओं ( reticulocytes ) का पड़ा करता है । इनमें न्यष्टि जालिका में परिणत हो जाती है जो क्षारीय रंग से अभिरञ्जित हो जाती है । यह जालिका अत्यन्त सूक्ष्म रेशों से बनी हुई दिखलाई देती है । ये जालककोशा प्रकृत रक्त में नहीं मिलते मुश्किल में १००० रुधिराणुओं के पीछे दो का औसत पड़ता है । पर जब रक्तनिर्माणक्रिया अस्थिमज्जा में असामान्य परिस्थिति में चल पड़ती है तो उनकी संख्याभिवृद्धि हो जाती है । यहाँ तक कि ये सम्पूर्ण रुधिराणु संख्या का १५ प्रतिशत तक पहुँच जा सकते हैं। कभी-कभी रक्तक्षय की अधिकतावश या सीस विषता ( lead poisoning ) हो जाने पर यही क्षाररंजनशील जालक कणों में परिवर्तित हो जाता है । इसे विन्दुकीय क्षारप्रियता ( punctate basophilia ) या क्षारप्रिय सिध्मन ( basophil stippling ) अथवा कणीय क्षारप्रिय विहास ( granular basophilic degeneration ) कहा जाता है |
न्यष्टिवान् रुधिराणु — हम ऊपर दो प्रकार के न्यष्टिवान् ( nucleated ) रुधिराणुओं का नामोल्लेख कर चुके हैं - एक ऋजुरुह ( नौर्मोब्लास्ट ) तथा दूसरे बृह - द्ररुह ( मैगालोब्लास्ट ) । इनमें ऋजुरुह रुधिराणु के समान आकार वाले होते हैं । इनके अन्दर न्यष्टि गोल होती है जो क्षारीय रंग से गहरी अभिरंजित होती है। उसका चिद्रस अम्लरंगों के प्रति अधिक झुकाव रखता है क्योंकि उसमें शोणवर्तुलित उपस्थित रहती है । इन रूहों की आकृति में भी अन्तर होता है । नये कोशा पुरानों से बड़े होते हैं । पर बृहद्रक्तरुह ऋजुरुहों की अपेक्षा बहुत बड़े होते हैं । इनके अन्दर की न्यष्टि जालकीय ( reticular ) होने से इस पर क्षारीय रंग अच्छा नहीं चढ़ता तथा इसकी आकृति भी पर्याप्त विषम होती है । आरम्भ में इनका चिद्रस शोणवर्तुलिविहीन होने के कारण क्षार से अभिरंजित हो जा सकता है पर आगे चलकर शोणवर्तुल बनने के साथ-साथ अम्लाभिरंजित होने लगता है । सामान्यतया यह न्यष्टि विलीन होती जाती है, शोणवर्तुल बढ़ती जाती है, उसका आकार साधारण रुधिराणुओं से बड़ा होता है और उसमें बहुवर्णता ( polychromasia ) स्पष्टतः मिलती है । यही बृहद्रक्तकोशा ( megalocyte ) का रूप है । इसमें पर्याप्त मात्रा में शोणवर्तुलि रहने से तथा आकार में विशालता होने से इसे सक्रिय आकारिकीय पिशाच ( functio. nal morphological giant ) कहते हैं ।
रुधिरागु और भंगुरता - समबललवणविलयन (isotonic salt solution) ०.८५ ग्राम लवण १०० सी. सी. परिस्रुत जल में मिला कर बनाया जाता है जिसमें रुधिराणु बड़े मजे में बिना किसी विकृति के घण्टों पड़े रह सकते हैं। यदि इस विलयन में लवण की मात्रा क्रमशः कम करते चले जायँ तो जो विलयन तैयार होंगे उनमें से ०.४४% के विलयन से रुधिराणुओं का अंशन ( lysis ) आरम्भ हो जाता है । यह शोणांशन या अंशन ०.३४% के विलयन में पूर्ण हो जाता है । पित्तविहीन (या अपित्तमेहिक) मूत्रीय कामला ( acholuric jaundice ) में रुधिराणु बहुत भंगुर हो जाने के कारण उनका अंशन ०.७% पर आरम्भ होकर ४५% पर पूर्ण हो जाता है ।
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