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द्वादश अध्याय
रुधिर वैकारिकी देहस्य रुधिरं मूलं रुधिरेणैव धार्यते । तस्माद्यत्नेन संरक्ष्यं रक्तं जीच इति स्थितिः ॥ (सुश्रुतः)
देह का मूल रुधिर है। रुधिर ही देह का धारण करता है अतः रक्त यत्नपूर्वक संरक्षणीय है । रक्त ही जीव है यह स्थिति है । रुधिर और रक्त दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। एक से दूसरे का बोध होता है । आयुर्वेद तत्त्ववेत्ताओं ने रुधिर या रक्त की महत्ता का पर्याप्त अध्ययन किया था और उसी के परिणामस्वरूप रक्तं जीव इति स्थितिः तक उनकी पहुँच हुई थी।
रक्त का निर्माण आयुर्वेद रस से मानता है-रसादक्तम् । रस की परिभाषा सश्रुत ने देते हुए लिखा है
तत्र पाञ्चभौतिकस्य चतुर्विधस्य षड्सस्य द्विविधवीर्यस्याष्टविधवीर्यस्य वाऽनेकगुणस्योपयुक्तस्याहारस्य सम्यक्परिणतस्य यस्तेजोभूतः सारः परमसूक्ष्मः स रस इत्युच्यते । कि पृथिव्यादि पञ्चमहाभूतात्मक, पेय, लेह्य, भक्ष्य, भोज्य चार प्रकार के स्वादु, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, कषाय इन छ रसों से युक्त शीत तथा उष्ण इन दो वीर्यों से संयुक्त; शीतोष्ण स्निग्ध रूक्ष, विशद, पिच्छिल, मृदु तीक्ष्ण इन अष्टविध वीर्य से ओत प्रोत तथा द्रव्यगुणशास्त्र में वर्णित गुरु-लघु, शीतोष्ण, स्निग्ध-रूक्ष, मन्द-तीचण, स्थिर-सर, मृदु-कठिन, विशद-पिच्छिल, श्लक्ष्ण-खर, सूक्ष्म-स्थूल, सान्द्र-द्रव, विकाशिव्यवायि आदि अनेकों गुणों वाला आहारविधिविधान के अनुसार किए गये भोजन के सम्यक्तया पच जाने पर जो तेजोभूत प्रसाद स्वरूप परमसूक्ष्म सार बनता है वही रस कहलाता है । इस रस का हृदय स्थान माना गया है वहाँ से चल कर
कृत्स्नं शरीरमहरहस्तर्पयति वर्धयति धारयति यापयतिसम्पूर्ण शरीर का निरन्तर तर्पण, वर्धन, धारण और यापन करता है। यह इसका सम्पूर्ण कर्म अदृष्ट हेतुकेन कर्मणा किसी अदृष्ट कर्म के प्रभाव से होता है । यह आप्य (जलरूप) रस यकृत्प्लीहानौ प्राप्य रागमुपैति और तब इसकी संज्ञा रक्त हो जाती हैरञ्जितास्तेजसा त्वापः शरीरस्थेन देहिनाम् । अव्यापन्नाः प्रसन्नेन रक्तमित्यभिधीयते ॥ ( सुश्रुतः) शरीरियों की देह में स्थित रस तेज के द्वारा यह आप्यरस यकृत् प्लीहा में रंगा जाकर प्रसाद रूप रक्त कहलाने लगता है। इससे विदित होता है कि लालकण रहित रक्त का सम्पूर्ण तरल भाव आयुर्वेदीय आहार का तेजोभूत सार आप्य रस है तथा लालकों के मिल जाने से और वर्ण में लाल हो जाने के बाद इस रस की संज्ञा रक्त हो जाती है। . उसी रस के सम्बन्ध में निम्नलिखित भावों की अभिव्यक्ति और की जाती है१. रसादेव स्त्रिया रक्तं रजः संज्ञं प्रवर्तते ।
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