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विकृतिविज्ञान products ) भी रहते हैं । लसीका या लस (lymph) यह प्लाज्मा या रस का ही एक तनु स्वरूप है। इसमें रक्त रस या अन्न रस के अतिरिक्त ऊतियों से प्राप्त तरल ( tissue fluids ) भी रहते हैं। यह एक माध्यम ( medium ) का कार्य करता है जिसके एक ओर रक्त और दूसरी ओर ऊति रहती है। रक्त से पोषक द्रव्यों को लसीका ऊतियों में पहुँचाती है और ऊतियों में चयापचय क्रिया द्वारा बने अपद्रव्यों को रक्त को अर्पण करती है।
साधारणतया स्वस्थावस्था में रक्त की रासायनिक, भौतिक तथा कोशीय स्थिति स्थिर स्वरूप की होती है इसलिए रक्त के घटकों या परिस्थिति में थोड़ा सा भी अन्तर उसी समय आया करता है जब शरीर को कोई रोग सतावे । जहाँ विकृतिविशारद (पैथालौजिस्ट) अपनी प्रयोगशाला में रक्त के घटकों का ज्ञान प्राप्त करके रोगावस्था का ज्ञान करता है वहाँ एक प्राचीन चिकित्सक रक्तगति का अध्ययन नाडी द्वारा करके निदान का ठीक ठीक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। नाडी या रक्तचित्र में अन्तर ज्ञात होने पर उसका रोगविशेष के साथ सम्बन्ध बैठाना निदानज्ञ के लिए एक गुरुतर कार्य होता है।
रुधिराणु-इन्हें रक्त के लालकण भी कहते हैं । आधुनिक भाषा में रैड ब्लड कार्पस्किल्स (Red Blood Corpuscles) के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनका संक्षिप्त नाम आर. बी. सी. (R. B. C.) कहा जाता है । वैज्ञानिक भाषा में इन्हें एरीथ्रोसाइट्स (erythrocytes) atAfAIETA (normocytes), a41 HAIETA (chromo. cytes) के नाम से पुकारते हैं जिनके पर्याय क्रमशः रक्तकायाणु, ऋजुकायाणु तथा वर्णकायाणु इस पुस्तक में प्रयुक्त हुए हैं । स्तनधारी जीवों में जन्म के कुछ काल पश्चात् ये रुधिराणु न्यष्टि रहित (non-nucleated) होते हैं । गर्भावस्था में तथा प्रसव के तुरत बाद इनमें न्यष्टि देखी जा सकती है। इनकी संख्या में पर्याप्त अन्तर स्वस्थावस्था में भी देखा जा सकता है। स्त्रियों में ४० लाख से ५० लाख प्रतिघन मिलीमीटर तथा पुरुषों में ४५ लाख से ६० लाख तक इनकी स्वाभाविक गणना मिल सकती है। प्रत्येक रुधिराणु का औसत व्यास ७.५ म्यू का होता है। आकृति की दृष्टि से उभय. पार्श्व नतोदर ( biconcave ) होता है। न्यष्टि का अभाव होने के कारण रुधिराणु का विभजन नहीं हो सकता है। एक रुधिराणु प्रायशः तीन सप्ताह तक जीवित रहा करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सारे शरीर के रुधिराणुओं का तीसवाँ भाग प्रतिदिन नष्ट हो जाता है । इन नष्ट होने वाले रुधिराणुओं को समाप्त करने का कार्य जालकान्तश्छदीय संस्थान का है। ___ यद्यपि आयुर्वेद रुधिराणुओं का उद्भवस्थल यकृत् तथा प्लीहा को मानता है। पर देखा यह गया है कि जब तक बालक गर्भस्थ रहता है तब तक उसके रुधिराणुओं का निर्माण यकृत् प्लीहा भले ही करें पर जन्मोपरान्त यह कार्य लाल अस्थिमज्जा ( red bone narrow ) के अन्दर ही सम्भव होता है। लाल अस्थिमज्जा सदैव चिपटी अस्थियों में ही पाई जाती है। इस कारण वयस्कों में पृष्ठवंश के कीकस,
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