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विकृतिविज्ञान वातवाहिन्यबंद या गोलार्बुद (glomus tumour )-ये अर्बुद औतिकीय दृष्टि से वातनाड़ी तन्तुओं तथा वाहिनीय अन्तश्छदीय कोशाओं द्वारा बनते हैं। कभी कभी उनमें वाहिनी की रचना इतनी बन जाती है कि उन्हें पहचाना जा सके। इसे 'ग्लोमेलिओमा' (glomangioma) भी कहा जाता है। ग्लोम गोल के लिए एक लैटिन शब्द है अतः इसे गोलवाहिन्यर्बुद के नाम से भी पुकारा जा सकता है। ये छोटे गोल साधारण अर्बुद होते हैं । ये बहुधा शाखाओं ( extremities ) में होते हैं। ये अत्यन्त वेदनादायक और मन्थर गति से उत्पन्न होने वाले ग्रन्थक होते हैं। काटने से वेदना जाती रहती है। इनकी पुनरुत्पत्ति नहीं हुआ करती। इनकी उत्पत्ति अग्रबाहु पर अधिकतर होती है । अंगुलियों में नखों के नीचे ये बहुधा मिलते हैं। ये अर्बुद वातनाड़ी-वाहिनीय उस कलाविन्यास ( mechanism ) से उत्पन्न होते हैं जो स्वचा में रक्तप्रवाह का नियन्त्रण करता है। इसे धमनीसिरीयसंगम (arterio-venous shunt) भी कह सकते हैं। इसमें रक्त धमनियों से सीधा सिरा में चला जाता है । यह स्थल बड़े बड़े अधिच्छदाभ गोल (ग्लोमस) कोशाओं द्वारा स्तरित होता है । यहाँ अनैच्छिक पेशीतन्तुओं का भी पर्याप्त जमाव रहता है तथा बहुत से अविमजिकंचुक (nonmedulated ) वातनाडी तन्तु कोशाओं के बीच से होकर जाते रहते हैं। अधिच्छदाभ कोशा तर्कुरूप अनैच्छिक पेशीक कोशाओं से धमनी या सिरा में मिल जाते हैं। ये झिमरमैन के परिकोशाओं (pericy tes of Zimmer
mann ) द्वारा उत्पन्न होते हैं जो सम्पूर्ण शरीर में केशिकाओं के चारों ओर लिपटे रहते हैं और अनैच्छिक पेशीक तन्तुओं में समाप्त हो जाते हैं। यह सम्पूर्ण कलाविन्यास वातनाडी पेशीय धामनिक गोले को बनाता है जो शाखाओं में रक्त परिभ्रमण का नियन्त्रण करके स्थानिक तापांश को मर्यादित करता रहता है। मैसन ने १९२२ ई. में इस कलाविन्यास में उत्पन्न होने वाले इन अर्बुदों की खोज की थी।
लसवाहिन्यर्बुद ( Lymphangioma ) जितना शोणवाहिन्यर्बुद मिलता है उसकी अपेक्षा यह बहुत कम पाया जाता है। शोणवाहिन्यर्बुद की तरह यह भी एक सहज ( congenital ) व्याधि होती है। यह अर्बुद स्थानिक और प्रसर दोनों प्रकार का हो सकता है। वाहिनियाँ छुद्र भी हो सकती हैं और स्रोतसीय ( cavernous ) भी। इनमें रन के स्थान पर लसीका भरी रहती है। इस कारण से शोणवाहिन्यर्बुद के वर्ण में और इसके वर्णं में पर्याप्त अन्तर होता है। ये अर्बुद अनृजु बृहत् लसीकावाहिनियों से युक्त होते हैं। यह कहना सन्देहास्पद है कि एक लसवाहिन्यर्बुद में वृद्धि का कितना अंश वाहिनी के विस्फार से बना है और कितना लसवाहिनियों के वास्तविक नवनिर्माण द्वारा बन सका है। इसके भी शोणवाहिन्यर्बुद की भाँति दो प्रकार किए जा सकते हैं एक केशिकीय और दूसरा स्रोतसीय । इसका व्यवहार और उद्गमस्थल भी शोणवाहिन्यर्बुद से मिलते जुलते ही हुआ करते हैं । दोनों में केवल मुख्य अन्तर यही रहता है कि शोणवाहिन्य
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