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विकृतिविज्ञान और कोष्ठकोत्पत्ति की ओर इंगित हम कर ही चुके हैं। कभी-कभी कास्थ्यर्बुद के ऊपर की त्वचा सड़ जाती है और एक कवकान्वित पुंज बन जाता है।
कास्थ्यर्बुदों के प्रकार अन्तर्कोशीय पदार्थ की विविधता पर निर्भर करते हैं। यह पदार्थ तान्तव, काचर, श्लिषीय कैसा ही हो सकता है। एक ही अर्बुद में भी वे तीनों एक साथ पाये जा सकते हैं । नियम यह है कि जो अस्थिमज्जा के पास से निकलते हैं वे काचर और श्लिषीय तथा अन्य स्थिति में उत्पन्न होने वाले बहुधा तान्तव होते हैं। जो तान्तव प्रकार शीघ्र बढ़ता है यह कास्थिसंकट (chondroisarcomata) बनता है तथा जो श्लिषीय रूप रखता है वह श्लेष्मकास्थ्यर्बुद (myxo-chondroma ) बन कर रह जाता है। कभी-कभी एक ही अर्बुद में अस्थिसंकट तथा श्लेष्मकास्थ्यर्बुद दोनों ही पाये जाते हैं।
कास्थ्यर्बुदों का उत्पत्तिस्थल अस्थि होती है जो तीन चौथाई प्रमाण में उपलब्ध होती है। अस्थि में इसके दो स्थान हैं। एक केन्द्र से जिसे अन्तःकास्थ्यर्बुद (enchondroma ) और दूसरा पर्यस्थ के नीचे से जिसे बहिःकास्थ्यर्बुद ( ecchondroma) कहते हैं। __ अस्थियों में जब तक वृद्धि करने की क्षमता रहती है और उनमें प्रचुर परिमाण में रक्तपूर्ति होती रहती है, अस्थि पदार्थ के बीच-बीच में कास्थि की द्वीपिकाएँ बिछी रहती हैं। इन्हीं कास्थि द्वीपों में ही कास्थ्यर्बुद का विकास होता है।।
कास्थ्यर्बुद हाथ पैरों की अंगुलियों, और्वी अस्थि के निचले भाग, प्रगण्डास्थि जंघास्थि के ऊपरी सिरों से अधिकतर उत्पन्न होता है । वैसे पर्युकाओं तथा श्रोणि की अस्थि में भी यह बनता है।
नैदानिक दृष्टि से कास्थ्यर्बुद के दो विभाग किये जाते हैं एक को एकल प्रकार कहते हैं जिसमें बहिःकास्थ्यर्बुद का समावेश होता है, यह लम्बी अस्थि की किसी कास्थीय द्वीपिका द्वारा अस्थि के उपरिष्ट धरातल पर बनता है, यह अस्थि के सिरे पर या पर्युकीय कास्थि (costal cartilage ) में बनता है। अस्थि या पशुका दोनों में कोई सम्बन्ध विशेष नहीं रहता। इसकी अस्थिशिरीय कास्थि से भी कोई सम्बन्ध नहीं होता। ये अर्बुद बड़े कठिन होते हैं तथा खण्डिकायुक्त होते हैं। ये अस्थि के साथ लगे रहते हैं और जब तक किसी वातनाडी के दबाने में कारण बनें, सर्वथा वेदनाविहीन होते हैं। इनका आकार बहुत बड़ा हो सकता है। कभी-कभी तो वे एक फुटबाल (पादकन्दुक ) के बराबर भी बड़े देखे जाते हैं, ऐसी अवस्था में दबाव के द्वारा अंग को विकृत करना, समीपस्थ ऊतियों या रचना की अपुष्टि करना या अंग के हिलने-डुलने में कठिनाई करना सम्भव हो सकता है। ये सदैव संकटार्बुद का रूप धारण कर लिया करते हैं।।
दूसरे को बहुविध ( mutiple ) प्रकार कहते हैं इसमें अन्तःकास्थ्यर्बुद का समावेश किया जा सकता है। ये सदैव छोटी हाथ पैरों की अस्थियों में होते हैं । अर्बुद अस्थि के भीतर छिद्रिष्ठ ऊति ( cancellous tissue ) में अस्थि शिर के
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