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विकृतिविज्ञान सुषिरकावरोध होने से या आन्त्रान्त्रप्रवेश (intussusception-बद्धगुदोदर) होकर घातक परिणाम देखे जा सकते हैं।
दो पेशियों के मध्य में स्थित कला में भी यह बन सकता है। आमाशय तथा आन्त्र की उपश्लैष्मिक ऊति के अन्दर भी यह देखा जाता है। सन्धियों में कभी कभी इसकी उत्पत्ति से सम्पूर्ण सन्धि गुहा भर जाती है तब यह सशाख विमेदाबंद ( lipoma arborescens ) कहलाता है।।
किसी भी स्थान पर विमेदार्बुद हो उसका वर्णन लगभग एक सा ही होता है। यदि अंग कोमल है और उस पर अर्बुद का भार पड़ रहा है तो अवश्य विशेष परिवर्तन पाया जावेगा अन्यथा कोई खास अन्तर दृष्टिगोचर नहीं हुआ करता।। ____ अस्थि के ऊपर और पर्यस्थ के नीचे गहराई में कभी कभी विमेदार्बुद बनता है। उसके कारण परिलिखित अर्द्धउच्चावचीय ( semifluctuant ) शोथ के रूप में यह दिखलाई देता है और ऐसा प्रकट होता है कि मानो कोई विद्रधि बन रही हो पर ज्यों ही शस्त्रकर्म किया जाता है इसका वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है।
प्रीवा में मेदोत्कर्ष के कारण द्वितीय हनु का निर्माण हो जाता है। वह जैसा कि पहले कहा है विमेदाधुंद न होकर विमेदोत्कर्ष प्रैविक ( lipomatosis colli ) कह लाता है। ग्रीवा में या कन्धे में जब विमेदार्बुद बनता भी है तो वह गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे की ओर सरकता चलता है और उस पर एक प्रावर चढ़ा रहता है। विमेदोत्कर्ष में वैसा प्रावर नहीं हुआ करता।
कभी कभी पुरः कपालास्थि ( frontal bone ) के ऊपर पर्यस्थ के नीचे भाल पर विमेदार्बुद बने हुए देखने में आते हैं। यह उपपर्यस्थीय होते हैं। अस्थि से सम्बद्ध रहने के कारण इनमें उच्चावचन प्रायः नहीं होता।
जिह्वा के पदार्थ के भीतर गोल मृदुल शोथ के रूप में भी विमेदार्बुद देखा जा सकता है।
विमेदावंद के ३ प्रमुख प्रकार हैं ।
१. तन्तु-विमेदार्बुद (fibro lipomata)-यहाँ विनेदार्बुद के अन्दर तान्तवऊति का आधिक्य रहता है।
२. श्लिष-विमेदार्बुद ( myxo lipomata)-यहाँ विमेदार्बुद में श्लिषीयजति का भी संयोग हुआ रहता है । ____३. बाहिन्य विमेदार्बुद ( naevo lipomata)-यहाँ विमेदार्बुद के साथ बाहिन्यर्बुदीय रचना भी देखी जाती है।
श्लेष्मार्बुद ( Myxoma) यह संयोजी ऊति का ही एक अर्बुद है जिसकी रचना गर्भनाल सदृश्न ( like umbilical cord ) होती है। यह शुद्ध अर्बुद के रूप में बहुत ही कम मिलता है। योजी ऊतियों में श्लेष्माभ या श्लिषीय विहास होने के कारण ही यह बनता
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