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विकृतिविज्ञान
क्षेत्रों में लसीकोशाओं तथा प्ररसकोशाओं का जमाव होता है उस समय प्रत्यक्ष (gross ) या अण्वीक्ष ( microscopic ) किसी भी प्रकार का विक्षत अन्तःचोल पर नहीं मिल पाता ।
इस मध्यचोलीय महाधमनीपाक ( mesaortitis ) के कारण, जिसे सुकुन्तलाणु उत्पन्न करते हैं, मध्यचोल की संयोजी एवं प्रत्यास्थ दोनों प्रकार की ऊतियों का विनाश हो जाता है और उसके कारण विनष्ट ऊति के सिध्म इतस्ततः बन जाते हैं । इन सिध्मों में ही फिर व्रणवस्तु ( scartissue ) का उदय होता है ।
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अन्तः चोल में मध्यचोलीय सिध्मों के स्थानों पर संयोजी ऊति की पूरक pensatory ) वृद्धि होती है । इस वृद्धि में तथा धमनीप्राचीरों के स्नैहिक विहास ( atheroma ) के कारण उत्पन्न सिध्मों में कोई साम्य नहीं हुआ करता ।
महाधमनी के फिरंगोपसृष्ट हो जाने के कारण वर्षों तक उपसर्ग सक्रियावस्था में रहता है इसलिए तीव्र पाक होता हुआ सदैव पहचाना जा सकता है । यह उत्तरोत्तर वृद्धिंगत विक्षत उसी अवस्था में शान्त होता है जब उसके सुकुन्तलाणु समाप्त हो जाव या मर जावें तथा प्रत्येक वृद्धिंगत सिराज ग्रन्थि ( aneurysm ) सदैव सुकुन्तलाणुओं द्वारा उपसृष्ट होता रहता है।
स्थूलचित्र - यदि धमनीप्राचीर में स्नैहिकविहास न हुआ हो, जो बहुधा हो जा सकता है, तो इस रोग का स्थूलचित्र बहुत स्पष्ट मिलता है । अर्थात् महाधमनी फुफ्फुसान्तरालीय ( mediastinal ) रचनाओं से अभिलग्न हो जाती है तथा उसका काटकर देखा गया सिरा खूब स्थूल हो जाता है। प्रभावित क्षेत्र में अन्तश्चोल की स्थानिक स्थूलता के कारण कई उन्नत सिध्म इतस्ततः दिखाई देते हैं, ये सिम पहले तो पाण्डुर वर्ण के और मसृण मुक्ता जैसी आभा वाले होते हैं पर आगे चल कर उनका धरातल गर्तित ( pitted ) और व्रणवस्तुयुक्त हो जाता है । इन सिध्मों के बीच की ऊति में इतनी झुर्रियां और बलियाँ पड़ जाती हैं कि वह पेड़ की छाल जैसी दिखने लगती हैं । यह पेड़ की छाल जैसा चित्र वाहिन्य स्नैहिकविहास ( atheroma ) में नहीं देखने में आता । स्नैहिकविहास के स्नैहिक सिध्म चूर्णीयन तथा व्रणन यहाँ पूर्णतः अनुपस्थित रहता है ।
अन्तश्छद में इतस्तः शोथ हो जाने के कारण हृदय की किरीटिका धमनियों ( coronary arteries ) के मुख इतने संकुचित हो जाते हैं कि वे केवल पिन के सिर के बराबर खुले रहते हैं जिसके कारण उनमें रोग हो जाता है पर अत्याश्चर्य के साथ लिखना पड़ता है कि रोग के साथ ही साथ विक्षत नहीं चलते। महाधमनी कपाट पूर्णतः स्वाभाविक रूप में रह सकता है या उसमें दो विशेष विक्षत बन जाते हैं उनमें एक है कि जहाँ महाधमनी के कपाट दल ( cusps ) एक दूसरे से मिलते हैं वह मुख ( commissure ) या समामिल बहुत चौड़ा हो जाता है और दूसरा है कपाट दलों के स्वतन्त्र किनारे (edges ) रज्जुसम (cord like ) स्थूल हो जाते हैं । महाधमनी के कटे हुये किनरों से यह परिलक्षित होता है कि अन्तश्छद का
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