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अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ
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मुख द्वारा किरणकवक के प्रवेश के २ मार्ग हैं एक दाँत और दूसरी तुण्डिका प्रन्थियाँ | कृमिदन्त ( caries of tooth ) होने पर या दाँत निकलते समय हुए व्रण के द्वारा किरणकवक हन्वस्थि में प्रवेश कर जा सकता है। जिसके कारण Traft में किरणकवक का उपसर्ग हो जाता है । हन्वस्थि के भीतरी सपूय अस्थिमज्जापाक हो जाता है । उसमें दूसरे प्रकार के पूयजनक जीवाणुओं का उत्तरजात उपसर्ग हो सकता है । पूय का स्राव तथा मृतास्थिलव ( sequestra ) देखे जा सकते हैं । पाक के साथ साथ नवीन अस्थि का निर्माण भी चलता रहने से हन्वस्थि कुछ बेडौल हो जाती है । जब तुण्डिकाग्रन्थिकूपिकाओं ( follicles of the tonsils ) द्वारा किरणकवक हन्वस्थि तक प्रवेश करता है तो पश्चग्रसनी विद्रधि या परितुण्डकी विद्रधि (peritonsillar abscess ) देखा जाता है ।
श्वासप्रश्वासक्रिया करते समय यह सम्भव है कि किरणकवक का फुफ्फुस में प्रवेश हो जावे । फुफ्फुस में पहुँच कर श्वसनिकीय प्रसेक ( bronchial catarrh ) उत्पन्न हो जाता है और थूक में किरणकत्रक की उपस्थिति देखी जा सकती है । यदि रोग कुछ गम्भीर हुआ तो गाँठदार नाभियाँ इतस्ततः देखने को मिलती हैं जिनसे गुहाएँ ( cavities ) बनती हैं। कई कई गुहाएँ मिलकर एक हो जाती हैं जिसके कारण उरःक्षत ( bronchiectasis ) की स्थिति बन जाती है । इस रोग के साथ साथ जो अत्यधिक तान्तव व्रणवस्तु बनती है वह उरःक्षत निर्माण में और भी सहायता करती है | किरणकवक फुफ्फुस ऊति को निरन्तर खोदती रहती है जिसके कारण वक्षप्राचीर तक फूट सकती है । नैदानिक दृष्टि से देखने पर रोगी कृश होता जाता है उसे ज्वर रहता है और वह खूब कफ थूकता है । ये सब लक्षण यक्ष्मा या शोष रोग से मिलते हुए होते हैं । यच्मा में जैसे रक्तपित्त के लक्षण उग्ररूप में देखने को मिलते हैं वैसे इधर नहीं ।
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अन्त्र पर किरणsan का प्रभाव सीधा भीतर से भी हो सकता है तथा समीपस्थ अंगों से या अन्तःशल्य के रूप में भी हो सकता है। प्राथमिक उपसर्ग होने पर गदर नाभियाँ बन जाती हैं । ये श्लेष्मल और उपश्लेष्मल ऊतियों में बनती हैं। इन गाँठों के टूट जाने से व्रण बन जाते हैं। ये व्रण उण्डुक प्रदेश में होते हैं। उनके कारण उण्डुकपुच्छपाक का भ्रम हो जाता है । व्रणों में पूयन होता है और जो पूय निकलता है उसमें किरणकवक उपस्थित रहता है ।
किरणaas का द्वितीयक उपसर्ग उदरच्छद गुहा, श्रोणि, मलाशय, पश्च उदरच्छद ऊतियाँ ( retro-peritonal tissues ) आदि स्थानों में हो सकता है जहाँ से वह यकृत् अथवा फुफ्फुस तक भी चला जा सकता है । औदरिक प्राचीर की ऊतियाँ भी प्रभावित हो सकती हैं ।
चाहे उपसर्ग अनेक दिशाओं में फैलता हो, यह रोग जीर्णस्वरूप का ही होता है । विस्थायि व्रण तथा सघन तन्तूत्कर्ष के क्षेत्र जिनसे स्वल्प मात्रा में पूयोत्सर्ग होता हुआ वर्षों देखा जाता है बहुधा मिलते हैं। अन्त में रोगी मण्डाभविहास से पीडित हो जाता है । ५५, ५३ वि०
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