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विकृतिविज्ञान करने वाला कोई तत्व अवश्य रहता है। यह कोई किण्व है, न्यासर्ग है वा विषाणु यह नहीं कहा जा सकता।
आयु-कर्कट किसी भी आयु में हो सकता है। परन्तु विभिन्न प्रकार के कर्कटों के लिए आयु की मर्यादा लगभग निश्चित सी है। संकटार्बुद बहुधा बचपन में होता है जब कि कर्कट प्रौढावस्था में मिलता है । पर इसका अर्थ यह भी नहीं कि संकटार्बुद प्रौढावस्था में तथा कर्कट शैशव, बाल्यकाल वा तारुण्य में नहीं ही मिलेगा। अधिवृक्क ग्रन्थियों का कर्कट शैशवकालीन होता है तथा वृषणकर्कट ३० वर्ष की आयु से नीचे देखा जाता है। आमाशय, स्तन और आन्त्र के कर्कट ३० वर्ष की आयु से नीचे मिल सकते हैं। कर्कट की उत्पत्ति इतनी देर में होने के २ कारण हो सकते हैं एक तो यह कि कर्कटोत्पादक तत्व बहुत देर में जाकर अपना प्रभाव जमा पाता है और दूसरे यह कि जब शरीर ऊतियों में विशेष कर स्त्रियों के प्रजननांगों में हासात्मक परिवर्तन होने लगते हैं तब इसकी उत्पत्ति सम्भव हो पाती है।
अनुहृषता तथा प्रतीकारिता-व्यवसाय द्वारा जिन व्यक्तियों को कर्कटोत्पत्ति होती है उनकी संख्या उस व्यवसाय में लगे हुए सब श्रमिकों की संख्या से बहुत कम होती है। कर्कटकारी व्यवसाय में संलग्न सभी व्यक्ति कर्कट से ग्रसित क्यों नहीं होते ? इसका उत्तर यही दिखलाई देता है कि जो ग्रसित हो गये उनमें कर्कट के प्रति अनुहृषता अधिक है तथा जो बच गये उनमें कर्कट के प्रति एक प्रकार की प्रती. कारिता ( immunity ) उत्पन्न हो गई होगी। - मनुष्य में प्लीहा एक ऐसा अंग है जहाँ प्राथमिक या उत्तरजात अर्बुद बहुत कम होते हैं। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि जालकान्तश्छदीय संस्थान अर्बुद से शरीर का संरक्षण करने में अवश्य प्रवृत्त होता होगा। परन्तु यकृत् तथा लसप्रन्थियों में पाये जाने वाले अर्बुदों को देखकर यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए। तो भी यदि रंगों का अन्तःक्षेपण किसी प्राणी में कर दिया जावे तो उसका जालकान्तश्छदीय संस्थान रंग से भर जाता है और कोई अन्य कार्य करना उसके लिए सम्भव नहीं रहता ऐसे समय यदि उस प्राणी के शरीर में कर्कट का प्रतिरोपण कर दिया जावे तो कर्कट बहुत शीघ्र उत्पन्न होता है । यह तथ्य स्पष्टतः बतलाता है कि कर्कटनिरोध में कुछ न कुछ जालकान्तश्छदीय संस्थान का अवश्य ही हाथ रहा करता है। जालकान्तश्छदीय संस्थान का यह प्रतिरोधात्मक कार्य एक कोशीय क्रिया है ऐसा मालूम पड़ता है क्योंकि जीवाणुओं के प्रति जैसी प्रतीकारिता मनुष्यों में पाई जाती है वैसी तरलीय (humoral) प्रतीकारिता होगी इसका कोई प्रमाण उपस्थित नहीं है।महाभतिकोशा अर्बुदकोशाओं को उसी प्रकार नष्ट करते हुए देखे जाते हैं जैसे कि वे किसी जीवाणु को अपने अन्दर लेते हैं।
मूषकों पर हुए प्रयोगों से यह पता लगता है कि यदि दो मूषकों में कर्कट का प्रतिरोपण किया जावे तो जो कर्कट के प्रति अनुहृष मूषक होगा उसके संयोजीऊति से एक नवीन संधार (stroma ) उत्पन्न हो जावेगा जिसमें अर्बुद को खाद्य
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