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अर्बुद प्रकरण
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सकता है जहाँ से कर्कट कोशा उदर के अन्य अंगों उदरच्छद, वपावाहन, बीजग्रन्थियों आदि तक बढ़ जाते हैं । ग्रहणी पर आमाशयिक कर्कट का प्रभाव नहीं पड़ता । मुद्रिकाद्वार से आगे कर्कट बढ़ता ही नहीं है । यदि आमाशय की पश्च प्राचीर पर कर्कट हुआ तो सर्वकिण्वी में उसका प्रसार हो सकता है। यकृत् में भी कर्कट का प्रसार हो सकता है । ये सब स्थानिक प्रसार के रूप हैं ।
ग्रन्थकों में कर्कट कोशाओं का प्रसार प्रायः देखा जाता है। पहले आमाशयस्थ सग्रन्थक प्रभावित होते हैं तत्पश्चात् मुख्या रसकुल्या द्वारा अक्षकास्थि के ऊपरी भाग की लसग्रन्थियों तथा ग्रैवीय लसग्रन्थियों में भी प्रभाव पड़ता हुआ देखा जाता है ।
रक्तधारा के द्वारा दूरस्थ अंगों में कर्कट का प्रसार होता है । केशिका भाजिसिरा द्वारा सबसे पहले यकृत् पर प्रभाव पड़ता है । यकृत् में यह उत्तरजात कर्कट आमाशयस्थ मूल कर्कट से कई गुना बड़ा तक हो सकता है । यकृत् के अतिरिक्त फुफ्फुस, वातनाड़ीसंस्थान, वृक्कों और अस्थियों तक प्रसार हो सकता है ।
आमाशयिक कर्कट में पाये जाने वाले कुछ लक्षणों का वर्णन हम पहले कर चुके हैं। उनमें एक लक्षण उदरशूल है । उदरशूल सदैव तब होता है जब आमाशय में कोई व्रण हो और पेशीयस्तर पर आघात हुआ हो। इस रोग में व्रण द्वारा जो कर्कट बनता है उसे छोड़कर शेष में पेशीयस्तर को आघात नहीं होने से उदरशूल बहुत ही कम देखने में आता है । अक्षुधा एक दूसरा लक्षण है । चुधा तब लगती है जब आमाशय का पेशीयस्तर अपनी स्वस्थावस्था में होता है और श्लेष्मलकला से पाचक रसों का स्राव होता रहता है । आमाशयिक कर्कट में स्वाभाविक कोशाओं में कर्कटीय कोशाओं की भरमार हो जाती है इससे रोगी थोड़ा खाकर भी तृप्त हो जाता है तथा बिना खाये भी तृप्त रहता है । आमाशय में उदनीरिकाम्ल का निर्माण जिन कोशाओं से होता है उनमें कुछ कर्कट द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं और कुछ स्वयं अपुष्ट हो जाते हैं, इस कारण यह अम्ल बहुत कम बन पाता है । मुद्रिकाद्वारीय अवरोध हो जाने पर जो आगे चल कर देखा जाता है तथा इस अवरोध के परिणामस्वरूप रुके हुए अन्न का विधान होने से आमाशय में दुग्धिकाम्ल ( लैक्टिक एसिड ) बनने लगता है और उसकी उपस्थिति की परीक्षा की जा सकती है । जो कर्कट व्रण द्वारा बनता है उससे रक्तस्राव पर्याप्त होता है जिसे आमाशय में भी सिद्ध किया जा सकता है तथा उसके कारण मल में भी रक्त मिल सकता है । आमाशय प्रचालन कर्म करने पर कर्कट के लव देखे जा सकते हैं। रक्त के इस प्रकार निकलने का परिणाम रक्तक्षय में हो जाता है । यह अरक्तता या रक्तक्षय उपवर्णिक होती है । परन्तु कभी-कभी इसे परमवर्णिक अरक्तता से पृथक् करना बहुत कठिन पड़ सकता है । ऐसी अवस्था में कामला देशना (icterus index ) देखनी चाहिए। यह कर्कट होने पर कभी स्वाभाविक से ऊपर नहीं होती। अरक्तता का कारण रक्तस्राव के अतिरिक्त प्रत्यरक्ततत्व ( antianaemic factor ) की कमी भी होता है जो परमवर्णिक प्रकार की अरकता कर देता है ।
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