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अर्बुद प्रकरण
७५३ की होती है। उसमें शाङ्गण ( keratinization ) कोशाकोटरनिर्माण (formation of cell nests ) तथा अधिच्छदीय मुक्ताओं का अभाव होता है तथा शिताग्रीयकोशा (prickle cells ) और उनकी कोणीय बहीरेखा तथा अन्तःकोशीय तन्त्वियाँ ( intercellular fibrils ) नहीं दिखाई देतीं । वृक्कीय अधिच्छदार्बुदों में अंकुराबुंदों की भाँति अंकुर तो होते हैं पर वे उनकी अपेक्षा छोटे और अधिक सूक्ष्म होते हैं। इनमें दौष्ट्य अपेक्षाकृत अधिक होता है। इनके द्वारा क्षेत्रीय लसग्रंथकों में लसवहाओं द्वारा विस्थाय बनते हैं। दूरस्थ अंगों में विस्थाय रक्तधारा के कारण बनते हैं। अधोस्थित मूत्रमार्ग में मूत्रधारा द्वारा तथा संवपन ( implantation ) द्वारा विस्थाय बनते हैं। इस रोग में गवीनी अवरुद्ध हो जाती है और उवृक्कोत्कर्ष मिलता है। रक्तमेहता इसका भी लक्षण होता है।
वृक्कमुख पर जब निरन्तर प्रक्षोभ का प्रभाव पड़ता रहता है तो उसका अन्तर्वर्ती अधिच्छद, स्तृत विशल्कीय अधिच्छद ( stratified squamous epithelium ) में परिवर्तित हो जाता है और तब उससे विशल्कीय अधिच्छदार्बुद बन जाता है जिसमें शाङ्गण एवं कोशाकोटर देखे जा सकते हैं ।
४-बस्ति कर्कट ( Carcinoma of the bladder ) . वृक्कमुख, गवीनी तथा बस्ति इन तीनों अंगों का एक दूसरे से निकट का सम्बन्ध है क्योंकि तीनों में अन्तवर्ती ( transitional ) अधिच्छद का आस्तर रहता है । इस कारण इनमें अन्तवर्ती कोशा कर्कट या चिरकालीन प्रक्षोभ के कारण परिवर्तित हुए विशल्कीय अधिच्छद में विशल्कीय कोशा कर्कट देखने में आते हैं। ___ बस्ति में दो प्रकार के कर्कट मिला करते हैं जिनमें एक निषण्ण ( sessile ) और दूसरा व्रणात्मक ( ulcerative ) कहलाता है। निषण्ण कर्कट के कारण मृदुल, चर्मकीलवत् (warty) पदार्थ बस्तिप्राचीर से निकलता है। इसके धरातल से प्रचुर परिमाण में रक्तस्राव होता है। बहुधा अंकुराबुंद द्वारा यह दुष्टरूप तैयार होता है। इसके ही भाग टूट-टूट कर और संवपित होकर बस्ति के विभिन्न भागों में अर्बुदिक प्रवर्धन रूप में देखे जा सकते हैं। __ निषण्ण अर्बुद के कोशा बस्तिप्राचीर में भरमार करते हैं और कभी-कभी नहीं भी करते । साधारण अंकुरार्बुद और इसमें अन्तर आकृति, स्वरूप, कोशाओं के रंजन की प्रकृति में विभिन्नता, परमवर्णयुक्त न्यष्टियों की उपस्थिति और विभजनाङ्कों की प्राप्ति से किया जाता है।
व्रणात्मक प्रकार को अनाङ्करीय कर्कट ( nonpapillary carcinoma) भी कहा जाता है। इसके साथ पर्याप्त संधारिक प्रतिक्रिया होने से इसमें तन्तूत्कर्ष पर्याप्त होता है । इसके कारण केवल एक, काठिन्ययुक्त दुष्ट व्रण बनता है। यह कर्कट बस्तिप्राचीर की श्लेष्मलकला के नीचे-नीचे पौढ़ता है और उसके कोशाओं की भरमार
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