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विकृतिविज्ञान
( vacuolated ), मेदपूर्ण ( lipoid-filled ) कोशाओं से बना होता है जैसा - कि अधिवृक्क बाह्यक ( adrenal cortex ) में देखा जाता है । अतः भ्रूणावस्था मेंौण बाह्यकीय अंश से ही इस अर्बुद की उत्पत्ति हुई है अतः वृक्क के ऊपर स्थित ऐसा अर्बुद का नाम रहना चाहिए जिसे अतिवृक्कार्बुद न कहकर वृक्कोपरिस्थित अर्बुद से कहना उचित होगा परन्तु ये सभी नाम आज भ्रम हैं क्योंकि यह अर्बुद शुद्ध वृक्क उत्पन्न है और एक तरह का कर्कट है जिसका वर्णन पीछे देखा जा सकता है । वृक्क की नालिकाओं से बने ग्रन्थ्यर्बुद में भी ऐसे ही कोशा देखने में आते हैं । अतिवृक्कार्बुद में जो नालिकीय रचना देखने में आती है वैसी अधिवृक्कग्रन्थि या उसके अर्बुदों में कहीं नहीं मिलती । अधिवृक्कग्रन्थि के अर्बुदों के साथ जो लैङ्गिक परिवर्तन सर्वशरीर में देखने में आते हैं वे भी यहाँ नहीं होते जिससे यह सिद्ध होता है कि अतिवृक्कार्बुद अधिवृक्कग्रन्थियों से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ।
यह अर्बुद वृक्क के एक या दूसरे सिरे में होता है । वह सिरा दूसरे सिरे की अपेक्षा भारी और स्थूल हो जाने से वृक्क अपनी स्वाभाविक आकृति में रहता नहीं । आरम्भ में यह प्रावरित होकर भी बाद में प्रावरविहीन और आक्रमणात्मक रूप धारण कर लेता है । कटे धरातल का वर्ण मेद की अधिकता के कारण पीत होता है । कहीं-कहीं रक्तस्राव के कारण लाल रंग भी मिल सकता है। छोटे-बड़े कोष्टक भी इसमें मिलते हैं इनमें लस्य या श्लैष्मिक तरल भरा होता है। किसी-किसी में ऊतिनाश
के कारण रक्त भरा मिलता है । अर्बुद के बीच में तान्तवकेन्द्र ( fibrous cone ) भी देखने में आती है। आर्बुदिक भाग में स्वस्थ वृक्कीयभाग बहुत कम होता है । अण्वीक्षण करने पर इसका चित्र कई रूप का मिलता है | अर्बुदकोशा बड़े-बड़े, गोल-गोल स्वच्छ या रसधानीयुक्त कायारस से पूर्ण मिलते हैं । यह स्वच्छता मेद के कारण होती है । पैत्तव सुन्युद ( cholesterol esters ) इसके प्रधान हेतु हैं । मधुजन की उपस्थिति भी इसमें आंशिक सहायता करती है । कभी-कभी अर्बुद में असित ( dark ) कणीय कोशा पाये जाते हैं । यह रूप अधिक दुष्ट हुआ करता है । कोशाविन्यास कई प्रकार का हो सकता है- ( १ ) शुद्ध नालिकीय विन्यास, (२) कोष्टीय सांकुर रूप जिसमें अंकुरित प्रवर्द्धनक कोष्ठकों की ओर बढ़ते हुए मिलते हैं तथा (३) ठोस रज्जुओं का अवकाशिकीय विन्यास जो पतली पटियों द्वारा अलग-अलग रहता है । इसमें संधार अल्प होता है परन्तु रक्तवाहिनियाँ खूब और मोटी होती हैं । इनकी प्राचीरें अर्बुदकोशाओं से ही प्रायः बनती हैं इसी से इस अर्बुद में रक्तस्राव की प्रवृत्ति पर्याप्त होती है तथा इसका विस्थायन रक्तधारा द्वारा होता है । शूलरहित रक्तमेह जो इस प्रकार के रोगी में पाया जाता है वह भी इन्हीं के कारण होता है । इनके फटकर नालिकाओं में पहुँचने से मूत्र के साथ रक्त जाता है ।
(२) जराय्वधिच्छदार्बुद
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जरावधिच्छदार्बुद से पीड़ित ५० रोगियों में २० को द्राक्षासम कोष्टक ( bydatidiform mole ), १० को ऋजु सगर्भता और १५ को गर्भपात होता
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