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अर्बुद प्रकरण
८२१ लक्षण ( proptosis ) मिले तो समझना चाहिए कि अधिवृक्क में कोई नववृद्धि हो रही है और तुरत उदर की परीक्षा करनी आवश्यक है। करोटि के अतिरिक्त अन्या अस्थियों में भी यह विकार देखा जा सकता है। करोटि का प्रसार सदा सिराओं के पृष्ठवंशीय संस्थान ( vertebral system of the veins ) से हुआ करता है। अस्थियों के प्रसार को हचिंसनीय प्रकार ( Hutchinson type ) कहते हैं । कुछ रुग्णों में यकृत् की वृद्धि अधिक होने लगती है। यकृत् कोशाओं में प्रसर भरमार होने के कारण उसकी वृद्धि एक सी होती है। इसे पैपरीय प्रकार ( Pepper type ) कहा जाता है। हचिंसनीय प्रकार के प्रसार में अस्थियाँ और पैपरीय प्रकार के प्रसार में यकृत् प्रभावित होता है यह सत्य है परन्तु इससे यह अनुमान लगाना कि पहले में वाम अधिवृक्क और दूसरे में दक्षिणाधिवृक्क रोगग्रस्त होने से ऐसा होता है, पूर्णतः सत्य नहीं है।
ब्वायड का कथन है कि यद्यपि वातनाडीरुहार्बुद बहुत दुष्ट अर्बुद होता है पर यह सदैव मारक हो ऐसा नहीं है। फर्बर का विश्वास है कि सहसा या विकिरणोपरान्त यह ठीक हो जा सकता है।
३. बस्तिसङ्कट-यह बहुत कम पाया जाने वाला सङ्कट है। यह कभी भी अंकुरीय (papillomatous ) नहीं होता जैसा कि बस्तिकर्कट हुआ करता है। वह भी बालकों में पाया जाता है। यह बहुपादीय, द्राक्षासम (grape like ) या अनेक वृद्धियाँ उत्पन्न करता है। यह द्रुतगति से बढ़ता है और थोड़े ही दिनों में एक बड़े गोल अर्बुद को जन्म देता है जो लसग्रंथियों तक बढ़ जाता है पर नियमतः इसमें शीघ्र वणन नहीं हुआ करता। इसमें रक्तमेह होता है जिसके साथ बस्तिप्रक्षोभ भी मिलता है जिससे कई-कई बार मूत्र परित्याग करना पड़ता है। कभी कभी सहसा मूत्रावरोध भी हो जाता है। यह सङ्कट उदर की अग्रप्राचीर पर उठा हुआ या दोनों हाथों से दबाकर टटोला जा सकता है। इसका प्रायः शस्त्रकर्म द्वारा अपनयन सम्भव नहीं होता।
४. पुरःस्थ (अष्ठीला) ग्रन्थिसङ्कट-यह बहुत विरलावस्था में ही पाया जाता है और विशेष करके शैशवकाल में उत्पन्न होता है। कभी कभी तरुणवर्ग में भी मिल सकता है। यह बड़े वेग से बढ़ता है और बढ़कर बस्ति की प्राचीर पर आक्रमण करता है । प्रौढावस्था में जो मारात्मक वृद्धियाँ पाई जाती हैं वे प्रायः अत्युच्च अविभिन्नित कर्कट ही होते हैं ऐसा मत विद्वानों का है।
५. वृषणसङ्कट-यह बहुत ही कम पाया जाने वाला अर्बुद है। जो भी नमूने इसके नाम पर रखे मिलते हैं वे या तो भ्रौणार्बुद के होते हैं या कर्कट के। वृषणसङ्कट सदैव शिशुओं में उत्पन्न होता है। यह बहुधा तर्कुकोशाओं द्वारा बनता है। कभी कभी गोलकोशा वाला भी पाया जाता है। लसिकाग्रंथियों पर इसका प्रभाव विरलतया ही पड़ता है। इसके विस्थाय फुफ्फुस में बना करते हैं।
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