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विकृतिविज्ञान
'उभयपार्श्वीय ( bilateral ) हुआ करता है । सहज होने पर तो इसके कारण प्रसव होने में भी कठिनाई पड़ सकती है । यद्यपि यह ग्रन्थिपेशीय संकट ( adenomyosarcoma ) है पर कई विद्वान् इसे श्रौणार्बुद ( teratoma ) भी मानते हैं । इसे वृक्क्य भ्रूणार्बुद ( renal embryoma ) भी कहते हैं । यह एक मिश्रित अर्बुद का ही पुकार होता है जिसमें ग्रन्थिकोशा, एक अविभिनित तान्तव संधार, सामान्य या रेखित पेशीतन्तु तथा कभी कभी कास्थि वा अस्थि तक पाई जा सकती है ।
यह अर्बुद वृक्क के बाह्यक में उत्पन्न होता है । इसका वर्ण धूसर होता है इसकी आकृति संकटार्बुदीय होती है जो वृक्क की ऊति पर आक्रमण करके उसे नष्ट करती है । इसी कारण आगे चलकर ऊतिनाश एवं रक्तस्रावी क्षेत्र इसमें बन जाते हैं । यह अर्बुद मध्यस्तरोत्पन्न ( of mesodermal origin) होता है और अल्पमारात्मक संकार्बुद की भाँति व्यवहार करता है । यह अति शीघ्र बढ़कर समीपस्थ अन्य अंगों पर सीधा आक्रमण करता है । इसके कारण विस्थाय बहुत कम बनते हैं । जितने भी लक्षण होते हैं वे इसके पुंज तथा आकार के कारण होते हैं। न तो इसमें शूल होता है और न रक्तमेह ही बहुधा पाया जाता है । थोड़ा ज्वर साथ में रह सकता है | यह तेज हृष ( radio-sensitive ) होता है ।
इस अर्बुद के अतिरिक्त वृक्क में प्रथमजात सङ्कट का प्रायशः अभाव रहा करता है । २. अधिवृक्क मज्जक संकट ( Sarcoma of the medula of the adre - nals ) - अधिवृक्क के मज्जक में ३ प्रकार के अर्बुद उत्पन्न होते हैं जिनमें एक चेतारुहार्बुद या वातनाडीरुहार्बुद ( neuroblastoma ) दूसरा, प्रगण्डचेतार्बुद ( ganglioneuroma ) और तीसरा असित वर्ण कोशार्बुद ( pheochromocy toma या chromaffinoma ) कहलाता है ।
चेतारुहार्बुद या वातनाडीरुहार्बुद को बालकीय अधिवृक्क संकटार्बुद ( adrenal sarcoma of the children ) भी कह दिया जाता है । जितने भी बहुत पश्वोदरच्छदीय अर्बुद बनते हैं वे सभी इसी प्रकार के होते हैं और वे औदरिक स्वतन्त्र नाड़ी प्रगण्डों से उत्पन्न होते हैं । अर्बुद में अविभिनित लघु गोल कोशा वातनाडीरुह ( neuroblasts ) पाये जाते हैं, साथ ही कुछ अपूर्ण प्रगण्ड कोशा और तन्तुक भी मिलते हैं । ये तन्तुक इस संकट का विशेष लक्षण प्रकट करते हैं। ये वातनाडीयतन्तुक ( चेतातन्तुक ) होते हैं । वे या तो अन्वायामी गट्टों ( longitudinal bundles ) में बँधे होते हैं या गोल पुंज बनाते हैं जिनके चारों ओर कोशा लगे रहते हैं और एक पाटलक ( rosette ) बना लेते हैं । ये पाटलक इस रोग के महत्त्वपूर्ण प्रकटायक लक्षण होते हैं । कभी कभी इनका मिलना बहुत कठिन होता है ।
इस अर्बुद के प्रसार से बहुधा करोटि ( skull ) में विस्थायोत्पत्ति हो जाती है । विशेषकर अक्षगोलक ( orbit ) में । इसके कारण नेत्र के समीप एक रक्तस्रावी क्षेत्र बन जाता है जिससे आगे चलकर आँख बाहर की ओर निकल आती है । जब यह
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