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विकृतिविज्ञान हो जाती है और इसके बीज (seedling ) उदरच्छदकला में या शस्त्रकर्म से बनी वणवस्तु में पुनः उगकर उदरच्छदकला की गुहा को श्लेष्माभ ( mucoid ) पदार्थ से भर देते हैं । यह अवस्था कूटोदरच्छदीय श्लिषोत्कर्ष (Pseudo myxomato. sis peritonei ) कहलाती है। आधुनिक विचारकों का कथन है कि यह अर्बुद श्रौणार्बुदिक उद्भव ( teratomatous origin ) वाले होते हैं तथा एक प्रकार के अधिच्छदीय कोशा अन्त्र ऊति कोशाओं को ढंक देते हैं। यही कारण है कि एक भ्रौणार्बुद के साथ भी कूटोदरच्छदीय श्लिपोत्कर्ष देखा जाता है। आन्त्रपुच्छ की श्लेष्मवृद्धि ( mucocele ) जो आन्त्रिक अधिच्छद द्वारा उत्पन्न होती है उसके फटने से भी कुटोदरच्छदीय श्लिषोत्कर्ष हो जा सकता है। इसी कारण यह कहा जाता है कि ऐसे ही अधिच्छद में बीजग्रन्थि का सकोष्ट ग्रन्थ्यर्बुद उत्पन्न होता है क्योंकि उसकी प्रकृति श्रौणार्बुदिक हुआ करती है । बॅनरार्बुद (Brenner tumour) में विहासात्मक परिवर्तन द्वारा भी कुछ बीजग्रन्थीय अर्बुदोत्पत्ति हो सकती है पर ऐसा बहुत कम देखा जाता है।
१०-अन्य अंगों के ग्रन्थ्यर्बुद
अ-वृक्कस्थ-वृक्क के बाह्यक में ग्रन्थ्यर्बुद एक गाँठ के रूप में बनता है। उसमें वृक्क नालिकाएँ ( tubules ) होती हैं। कभी कभी अतिवृकार्बुद (hypernephro. ma.) में पाये जाने वाले कोशा यहाँ मिलते हैं। कभी कभी वहाँ कोष्ठकोत्पत्ति हो जाती है जिसमें अंकुरीय प्रवर्द्धनक होते हैं और इस कारण वास्तव में वह सांकुर सकोष्ठ ग्रन्थ्यर्बुद ( papillary cystadenoma ) ही हो जाता है।
आ-पोषणिका ग्रन्थिस्थ-पोषणिकाग्रन्थि का ग्रन्थ्यर्बुद तीन प्रकार का होता है। एक अनाशुरंज्य ( chromophobe ), दूसरा अम्लरंज्य तथा तीसरा पीठरंज्य ( basophil)। अर्थात् यही तीन प्रकार के कोशा इनमें पाये जाते हैं और इन्हीं के ग्रन्थ्यर्बुद भी देखने में आते हैं। इन तीनों में अनाशुरंज्य कोशाओं द्वारा निर्मित ग्रन्थ्यर्बुद बहुतायत से देखने में आता है। इसके कोशा अण्डाकार न्यष्टि से युक्त होते हैं । उसका कायारस कणीय नहीं होता इस कारण अम्ल वा पीठ किसी से भी वह रंगा नहीं जाता। इन अर्बुदिक कोशाओं से कोई उदासर्ग प्रवाहित न होने से कोई अन्तरासर्गीय लक्षण (endocrine symptom) देखने में नहीं आता। इस अर्बुद के भार से अन्य प्रकार के कोशाओं की अपुष्टि हो सकती है। कन्दाधरिक भाग ( hypothalamus ) पर भार पड़ने से बहुमूत्र, मेदस्विता, अतिनिद्रता ( somnolence ) आदि रोग हो जाते हैं । पोषणिका जिस पर टिकी है उस अस्थि का अपरदन होने से भेदी शिरःशूल निरन्तर होता हुआ पाया जा सकता है। अधिक स्त्रीमदि (ईस्ट्रीन) का अन्तःक्षेप नरप्राणियों में करके परीक्षणात्मक रूप से अनाशुरंज्य ग्रन्थ्यर्बुद वैज्ञानिकों ने उत्पन्न करके दिखाये हैं जो यह सिद्ध करता है कि यह अर्बुद पुरुषों में भी स्त्रीमदि समवर्त ( oestrin metabolism) की गड़बड़ी से ही होता होगा।
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