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अर्बुद प्रकरण
७६५ नहीं होता। इसका वर्ण पीत या आबभ्रहरित होता है। इसमें प्रोभूजिन की मात्रा पर्याप्त होती है। अधिक विशल्कित अधिच्छदीय कोशाओं की उपस्थिति होने पर तो यह आविल ( turbid ) होता है और जब वे नहीं पाये जाते तो स्वच्छ ( clear ) होता है। बीजकोश की अधिच्छद से ग्रन्थ्यर्बुदात्मक अंकुरीय बहिर्वृद्धियाँ ( outgrowths ) निकलती हैं जो इन कोष्ठकों में पाई जाती हैं। ये बहिर्वृद्धियाँ कभी-कभी तो इतनी अधिक बनती हैं कि उनके कारण कोष्ठक का रिक्त स्थल अभिलुप्त हो जाता है और वह एक ठोस अर्बुद सरीखा दिखने लगता है । कोष्ठक के बहिर्धरातल के कोशाओं की प्रवृत्ति समीप की रचनाओं में अन्तर्भरण की रहती है जो अर्बुद के मारात्मक रूप के परिचायक होते हैं। इस अर्बुद में कोशा या तो घनाकारी (cubical) होते हैं या स्तम्भाकारी ( cylindrical ) होते हैं जैसे कि गर्भाशय प्रणाली ( uterine tube ) में पाये जाते हैं। कभी-कभी दोनों प्रकार के कोशाओं की मिलावट भी पाई जाती है। लगभग दो तिहाई रुग्णों में ये अर्बुद दोनों ओर पाये जाते हैं । अंकुरीय बहिर्वृद्धियों से युक्त द्विपाीय अधिकतर होते हैं तथा इनकी प्रवृत्ति मारात्मकता ( malignancy ) की ओर बहुत रहती है । यद्यपि इस प्रकार उत्पन्न कर्कट में मारकशक्ति बहुत कम पाई जाती है। धरातलीय अंकुरों के द्वारा ही यह अर्बुद फैलता है यद्यपि इसका औतिकीय रूप साधारण रहता है । कोष्ठक के फूट जाने पर अनेक वृद्धियाँ उदरच्छद पर भी चिपकी हुई तथा बनी हुई पाई जाती है । धरातलीय अंकुरों की रगड़ से भी उदरच्छद में ये वृद्धियाँ बन जाती हैं । उदरच्छद के प्रभावित होने पर जलोदर का बनना और निरन्तर रहना भी सम्भव हो सकता है।
कूटश्लेष्मीयसकोष्ट ग्रन्थ्यर्बुद-लस्य सकोष्ठग्रन्थ्यर्बुद की अपेक्षा ये कोष्ठ अधिकतर मिलते हैं। कालान्तर में इनका आकार भी बहुत बढ़ जाता है। अधिकतर ये एक ओर ही होते हैं परन्तु मिलने को दोनों ओर भी मिल जा सकते हैं । आनील वर्ण के अनेकों ऐसे कोष्ठकों के द्वारा इसका निर्माण होता है जिनमें कूटश्लेष्मीय श्लिषीय (gelatinous ) पिच्छिल (slimy ) पदार्थ भरा रहता है। प्रत्येक कोष्ठक के चारों ओर एक पट ( septum ) लगा होता है जिसके भीतर यह पदार्थ बन्द रहा करता है। बाहर की ओर यह पट चिकना और चमकदार होता है इसके साथ कोई अभिलाग ( adhesions ) नहीं होते। भीतर की ओर कोष्ठकीय अवकाशों में उच्च स्तम्भाकारी श्लेष्मस्रावी पक्ष्मरहित ( non-ciliated ) अधिच्छद का आस्तरण हुआ रहता है। चषककोशा (goblet cells) भी उसमें बहुधा मिला करते हैं। लस्य कोष्ठकों में जैसे अंकुरीय प्रवर्द्धनक मिलते हैं ऐसे यहां प्रायशः नहीं मिला करते । साथ ही अधिच्छदीय कोशा बाह्य प्राचीरों को फोड़ने का कार्य भी उतना यहाँ नहीं किया करते। कभी कभी कोष्ठक का एक भाग अधिक ठोस, अधिक श्वेत
और कम श्लिषीय देखा जाया करता है। इनमें अधिच्छदीय ऊति बहुत अधिक मिलती है और उसमें मारात्मकता (दुष्टता) के लक्षण अधिक देखने में आते हैं। पाँच प्रतिशत ये ग्रन्थ्यर्बुद दुष्ट हो जाया करते हैं। इसको पुनरुत्पत्ति भी
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