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विकृतिविज्ञान शल्कीय अंकुरार्बुद या चर्मकील-यह स्वचा में उत्पन्न होने वाला अर्बुद है। स्वचा के अतिरिक्त जहाँ कहीं अन्यत्र स्तृताधिच्छद ( stratified epithelium) हो वहाँ जैसे मुख, स्वरयन्त्र या अन्य किसी भी गुहा में यह बन सकता है। इसका आधार चौड़ा या तंग कैसा ही हो सकता है। अनेक ऐसे रोग होते हैं जो अंकुरार्बुद जैसे दिखते हैं परन्तु वास्तविक अंकुराबंद में शल्कीयाधिच्छद का प्रगुणन होने लगता है, अधिचर्म स्थूल हो जाता है और उसमें से स्थूल प्रवर्धनक निकल कर चमड़ी में घुस जाते हैं। पादतल पर जो चमकील (plantar warts ) मिलते हैं वे एक प्रकार के चपटे अंकुराबुंद ही होते हैं। इनमें अधिचर्म का अत्यधिक स्थौल्य देखा जाता है और धरातल का अत्यधिक कदरीकरण हो जाता है। स्थूलित अधिच्छद वातनाडियों के संज्ञावह सूत्रों को पीडित कर देता है जिससे दबने पर शूल होता है। प्रत्येक अंकुराबुंद में एक तान्तव आन्तरक ( filrous core ) होता है। कहीं-कहीं तो अधिच्छद की वृद्धि न होकर इसी तान्तव जति की वृद्धि ही होती हुई देखी जाती है।
श्लेष्मल अङ्कराचुद-यह बृहदन्त्र में अधिकतर मिलता है। इसका दूसरा उदाहरण बस्ति है। यह अंकुरार्बुद किसी भी श्लेष्मलकला में उत्पन्न हो सकता है । आमाशय तथा अन्त्र में अंकुरार्बुद पुर्वंगक या अर्श ( polypus) कहलाता है। यह अर्श या पुर्वगक अंकुराबुंद उतना नहीं होता जितना कि ग्रन्थ्यर्बुद होता है क्योंकि यह प्रगुणित प्रन्थियों के द्वारा निर्मित होता है। आमाशय और अन्त्र में पुर्वंगक अनेकों होते हैं। बृहदन्त्र में उनकी संख्या सैकड़ों में होती है। बिल्हाझिया हीमैटोबिया का उपसर्ग होने पर तो बस्ति एवं मलाशय में अंकुरोत्कर्ष (papillomatosis ) होने लगता है। आमाशय एवं बृहदन्त्र के पुर्वगफ इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि वे दुष्टत्व को बहुत शीघ्र प्राप्त हो जाते हैं।
अब आगे शरीर के विविध स्थलों पर उत्पन्न चर्मकीलों या अंकुराबंदों का हम वर्णन करेंगे।
१-बस्तिस्थ अङ्कुरार्बुद ( Papilloma of the Bladder )
बस्ति में अंकुरार्बुद बहुधा मिलने वाला अर्बुद है। इसे अंकुरीय बस्ति अर्बुद ( villous bladder tumour ) कहते हैं। यद्यपि यह एक साधारण अर्बुद है फिर भी यह दुष्टता की सीमा पर ही रहता है जिसके कारण कुछ वर्षों के पश्चात् यह दुष्ट हो जाता है। यह एक वृन्तयुक्त सांकुर, अंकुरीय ( papilliferous ) श्वेत
ज होता है जिसमें से धागे के समान प्रवर्धनक निकले रहते हैं जो मूत्र में तैरा करते हैं। यह बस्ति की श्लेष्मलकला से उत्पन्न होता है। इसका उद्भवस्थल प्रायः बस्ति का त्रिकोण ( trigone ) हुआ करता है। किसी गवीनी के मुख के पास भी यह उत्पन्न हो सकता है। बहुधा एक बड़ा अर्बुद होता है जिसके समीप अनेक छोटे
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