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विकृतिविज्ञान
स्वचा में शैशव काल में जो अनेक वार्ट्स या मस्से उग आते हैं वे किसी विषाणु की कृपा के फलस्वरूप होते हैं । द्वितीयक ( आभ्यन्तर ) फिरंग के द्वारा उत्पन्न फिरंगार्श (condylomata) को लैङ्गिक चर्माङ्कुर ( venereal warts) नाम दिया जाता है । गुप्ताङ्गों पर उष्णवात ( गनोरिया ) में जब अङ्कुरीय परमपुष्टियाँ हो जाती हैं तो वे भी लैङ्गिक चर्मार ही कहलाती हैं । उपाधिच्छदीय वाहिन्यर्बुदों ( angiomata ) के ऊपर भी परमपुष्टि हो सकती है, अङ्कुरीय अर्बुद बन सकते हैं और अन्त में जो न्यच्छ ( naevi ) नाम से प्रसिद्ध होते हैं । कुछ उपरिष्ठ वाततन्त्वर्बुद ( superficial neurofibromata ) केशों की अत्यधिक वृद्धि के कारण किसी एक स्थान पर देखे जा सकते हैं । वहाँ स्थानिक अधिच्छदीय परमपुष्टि भी रहती है । घर्षण और पीडन द्वारा किसी एक स्थान पर परमपुष्टि हो जाती है जिसे किण ( callosity ) कहते हैं । इसी प्रकार अङ्कुरार्बुद के रूप में कदर ( corn ) भी बनता है पर ज्योंज्यों जूते से वह दबता है अधिचर्म स्थूल होता जाता है और वह कोमल भागों में घुस जाता है तथा उसके अङ्कुर अपुष्ट हो जाते हैं ।
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आयुर्वेद में कदर, न्यच्छ, व्यङ्ग, मशक, चर्मकील, पद्मिनीकंटक आदि शब्दों का व्यवहार होता है । ये सभी क्षुद्र रोगों के अन्तर्गत आते हैं । इनका वर्णन इस प्रकार है।
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कदर - शर्करोन्मथिते पादे क्षते वा कण्टकादिभिः । मेदो रक्तानुगैश्चैव दोषैर्वा जायते नृणाम् ॥ सकीलकठिनो ग्रन्थिर्निम्नमध्योन्नतोऽपि वा । कोलमात्रः सरुक्स्रावी जायते कदरस्तु सः ॥
पाँव में कंकड़ लगने से या काँटा लगने से मेद और रक्त का आश्रय करके दोष व्यक्तियों में कीलयुक्त कठिन एक गाँठ बनाते हैं जो मध्य में नीची या उठी हुई और झरबेरी बेर के समान या बड़े बेर के समान होती है वह पीडायुक्त और साव करने वाली हो सकती है ।
जतुमणि - नीरुजं सममुत्पन्नं मण्डलं कफरक्तजम् । सहजं रक्तमीपच्च इलक्षणं जतुमणिं विदुः ॥ शूलरहित, एक बराबर उठी हुई, गोल, कफरक्त से बनी, जन्म से ही थोड़ी लाल, चिकनी जतुमणि कहलाती है ।
मषक—अवेदनं स्थिरं चैव यस्य गात्रेषु दृश्यते । माषवत्कृष्णमुत्सन्नमनिलान्मषकं वदेत् ।
वेदनारहित, स्थिर, काले उड़द के समान, उठा हुआ, काला, वातदोष के कारण Hषक ( मशक ) कहलाता है ।
तिलकालक - कृष्णानि तिलमात्राणि नीरुजानि समानि च । वातपित्तकफोद्रेकात्तान् विद्यात्तिलकालकान् ||
काले तिलप्रमाण, शूलरहित, एक से ( non-elevated ), वातपित्तकफोक द्वारा उत्पन्न तिलकालक होते हैं ।
पद्मिनीकण्टक - कण्टकैराचितं वृत्तं कण्डूमत् पाण्डुमण्डलम् । पद्मिनीकण्टकप्रख्यैस्तदाख्यं कफवातजम् ॥
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