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अर्बुद प्रकरण
कमल के काँटों के समान कण्टकयुक्त, गोल, कण्डूयुक्त, पाण्डुर वर्ण का कफवातज
मण्डल पद्मिनीकण्टक कहा जाता है ।
न्यच्छ— मण्डलं महदल्पं वा श्यामं वा यदि वा सितम् । सहजं नीरुजं गात्रे न्यच्छमित्यभिधीयते ॥
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मण्डलाकार बड़े या छोटे, काले वा श्वेत, सहज और नीरुज चकत्तों को न्यच्छ कहते हैं ।
चर्मकील - समुत्थाननिदानाभ्यां चर्मकीलं प्रकीर्तितम् । क्रोधायासप्रकुपितो वायुः पित्तेन संयुतः ॥ सहसा मुखमागत्य मण्डलं विसृजत्यतः ।
क्रोध एवं श्रम द्वारा कुपित वायु पित्त के साथ मिल कर मुख वा द्वारभाग में जो सहसा मण्डलोत्पत्ति करता है वह चर्मकील कहलाता है । उनके उठान और निदान द्वारा उनका ज्ञान होता है यहाँ जो चर्मकील शब्द आया है वह चर्माङ्कुर के स्थान पर प्रयुक्त मानना चाहिए। तथा व्यानस्तु प्रकुपितः श्लेष्माणं परिगृह्य बहिः स्थिराणि कीलवदर्शासि निर्वर्तयति तानि चर्मकीलान्यर्शासीत्याचक्षते । तथा
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तेषु कीलेषु निस्तोदो मारुतेनोपजायते । श्लेष्मणा तु सवर्णत्वं ग्रन्थित्वं च विनिर्दिशेत् ॥ पित्तशोणितजं कृष्णरक्तत्वं स्निग्धता तथा । समुदीर्णखरत्वं च चर्मकीलस्य लक्षणम् ॥ यह जो अर्श प्रकरण के चर्मकील का वर्णन है वह अङ्कुरार्बुद के लिए लिया जा सकता है।
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नैदानिकदृष्ट्या जब तक एक अङ्कुरार्बुद साधारण या अपुष्ट रहता है तब तक उसका प्रधान लक्षण रक्तस्त्राव रहा करता है क्योंकि सभी अङ्कुरार्बुद रक्त से भरे और वाहिनियों से युक्त होते हैं । इस कारण थोड़ी सी चोट से ही वे रक्त देने लगते हैं । बस्ति में उत्पन्न अङ्कुरार्बुद गवीनी के बस्तीय छिद्र में घुस कर मूत्रप्रवाह रोक सकते हैं तथा एक ओर के वृक्क को पूर्णतः क्रियाभ्रष्ट कर सकते हैं, बस्ति अन्तर्मुख ( internal_urinary meatus ) को भी बन्द कर सकते हैं । इनके कारण रक्तमेह ( haematuria ) प्रायः होता हुआ देखा जा सकता है। मूत्रमार्गस्थ अङ्कुरार्बुद के कोशाओं के पुञ्ज बस्ति में अन्यत्र भी उग आ सकते हैं जैसे कि बीज उगता है । इन उत्तरजात वृद्धियों से अर्बुद में दुष्टता आ गई ऐसा मानने का कोई कारण नहीं । गर्भाशय के अन्तर्भाग में ऐसी वृद्धियाँ साधारणतया देखी जा सकती हैं । आन्त्र में अङ्कुरार्बुद अनेक ( multiple ) हो सकते या हुआ करते हैं । इन अर्बुदों का सर्वाधिक भयप्रद लक्षण है इनका दुष्ट ( malignant ) बनते जाना । बस्ति और मलाशयस्थ अङ्कुरार्बुद प्रायः दुष्टस्व ग्रहण कर लेते हैं । दुष्ट होने पर ये वृद्धियाँ बहुत विस्तृत हो जाती हैं ।
इससे पहले कि हम विविध स्थलों में पाये जाने वाले अंकुरार्बुदों का पृथक्-पृथक् और कुछ विस्तृत वर्णन करें, हम अंकुरार्बुदों के दो प्रधान रूपों का कुछ वर्णन प्रारम्भ करते हैं । इस रूपों में एक शल्कीय और दूसरा श्लेष्मल है क्योंकि वे शल्कीय अथवा श्लेष्मल इन्हीं दो धरातलों से उत्पन्न होते हैं ।