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विकृतिविज्ञान लित हो जाया करता है। जो कोई भी स्राव या न्यासर्ग बनता है वह मूल ग्रंथि में पाये जाने वाले स्राव या न्यासर्ग के समान ही होता है और अभी तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं पाया गया जहाँ मूल ग्रंथि से विपरीतगुणयुक्त स्राव या न्यासर्ग मिला हो।
कभी-कभी पुरःस्थ (अष्ठीला) ग्रंथि या अवटुका प्रन्थि के स्थानिक परमचयों को ग्रन्थ्यर्बुद समझ लिया जाता है जो नितान्त भ्रम है। इस भ्रम का मुख्य कारण यह है कि परमचय प्रावरित (encapsulated ) हुआ करते हैं क्योंकि उनका फैलाव विस्तरण ( expansion ) से होता है। ऐसी दशा में इन परमचयों और ग्रन्थ्यर्बुदों में अन्तर करने के लिए यह समझ लेना चाहिए कि परमचय की उत्पत्ति बहुनाभीय ( multifocal origin) होती है जब कि ग्रन्थ्यर्बुद की उत्पत्ति सदैव एक नाभि (single focus ) से ही होती है। साथ ही यदि एक अंग में एकाधिक ग्रन्थ्यर्बुद हों तो वे सभी एक ही प्रावर में प्रावरित नहीं होते जैसा कि परमचयों में देखा जाता है।
मूल ग्रन्थि की भाँति ग्रन्थ्यर्बुदों में अवकाश होते हैं जिन्हें हमने गतिका कह कर लिखा है। ये गर्तिकाएँ सदैव नियमित ( regular ) रूप वाली होती हैं और उनके चारों ओर एकाधिक स्तर में कोशा छाये रहते हैं।
पेशी प्राचीर के संकोचन के फलस्वरूप आमाशय एवं स्थूलान्त्र में ग्रन्थ्यर्बुदों में एक वृन्त (stalk) उत्पन्न हो जाता है जिसके कारण एक पुर्वगक या अर्श (polypus) की तरह ग्रन्थ्यर्बुद सुषिरक में लटका रहता है। इस पुर्वगक को लोग अंकुरार्बुद कह देते हैं यद्यपि उसका शुद्ध नाम पुर्वंगकीय ग्रन्थ्यर्बुद ( polypoid adenoma ) अथवा ग्रन्थ्यर्बुदीय पुर्वगक ( adenomatous polypus ) होना चाहिए।
ग्रन्थ्यर्बुद में जो अवकाश होते हैं उनके कोशाओं से च्यावित होकर रस इकट्ठा होता चला जाता है जिसके कारण वे तन जाते हैं और तब कोष्ठ (सिस्ट-cyst) का निर्माण हो सकता है। इस वृद्धि को सकोष्ठ ग्रन्थ्य बुद ( cystadenoma) कहा जाता है। यह बीज ग्रन्थियों में प्रायः देखा जाता है जहाँ कोष्ठों की प्राचीरों में लम्बे-लम्बे स्तम्भाकारी कोशा लगे रहते हैं और उनसे एक प्रकार का श्लेष्माभ पदार्थ चूता रहता है। तरल के पीडन के कारण ये कोशा कभी-कभी चिपटे हो जाते हैं। कभी-कभी वे कोष्ठावकाश में प्रवर्द्धनकों की भाँति बढ़ भी जाते हैं तब वह सांकुर सकोष्ठ ग्रन्थ्यर्बुद ( papillary cystadenoma) कहलाता है। ___ यह कहना बहुधा कठिन होता है कि एक ग्रन्थ्यर्बुदीय वृद्धि साधारण है या दुष्ट हो गई है, क्योंकि ग्रंथिकर्कट में भी ग्रन्थीय रचना लगातार पाई जाती है और दोनों में तब तक कोई पता नहीं लग पाता जब तक कि अर्बुद के परिणाह से छेद लेकर अण्वीक्षण न करें। उस दशा में साधारण अर्बुद में एक सुनिश्चित मर्यादक प्रावर
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