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अर्बुद प्रकरण है और दूसरा स्थल मध्यवृक्क प्रणाली ( wolffian duct ) के अधिच्छदावशेषों (remnents of epithelium) होता है। उसका तान्तव भाग संधार से निकलता है। कोशा का प्रकार चतुष्कोणाभ या स्तम्भाकार होता है। चतुष्कोणाभ प्रकार छोटे अर्बुदों में जिनमें एक ही अवकाश होता है पाया जाता है। उस अवकाश में स्वच्छ लस्य (serous) तरल भरा रहता है । ये रोहि-अधिच्छदोद्भूत माने जाते हैं । स्तम्भाकारी अधिच्छद बहुखण्डीय अंकुरीय कूटश्लेष्मीय ( pseudo mucinous ) ग्रन्थ्यर्बुदों में देखा जाता है जिनका आकार बहुत बड़ा होता है और जो कभी कभी सम्पूर्ण उदरगुहा को भी भर लेते हैं। ये तान्तव पटियों ( septa ) से विभाजित रहते हैं इनमें एक पिच्छिल (glairy) श्लेष्माभ तरल (पिच्छा) भरा रहता है । ये कभी-कभी फट जाते हैं और उनके अर्बुदीय कोशा उदरगुहा के उदरच्छदीय धरातल से चिपक जाते हैं इससे अनेक नये अर्बुद उत्तरजात वपनक्रिया ( process of secondary seeding ) द्वारा उत्पन्न हो जाते हैं। इसमें अत्यधिक मात्रा में श्लेष्मा उत्पन्न होता है । इस अवस्था को कूट-श्लिषीयोत्कर्ष उदरच्छदीय (pseudo-myxomatosis peritonei ) कहते हैं । ये दुष्टता को भी ग्रहण कर सकते हैं।
ग्रन्थ्यर्बुदों के उत्तरजात परिवर्तन विहासात्मक होते हैं। इनसे कोष्ट बनते हैं जिनमें रक्तस्राव हुआ रहता है । वे ऊपर की त्वचा में व्रण करके उपसर्ग को स्थान दे सकते हैं जिससे उतिनाश और निर्मोकोत्पत्ति बन सकती है। दोनों ठोस अथवा कोष्ठीय ग्रन्थ्यर्बुदों में दुष्टता उत्पन्न हो सकती है और वे कर्कट में रूपान्तरित हो सकते हैं। कहीं-कहीं स्तन के सतन्तु-ग्रन्थ्यर्बुद में संयोजी भाग के अधिक प्रभावित होने से संकटार्बुद भी बन सकता है।
अब हम विविध अंगों में उत्पन्न होने वाले ग्रन्थ्यर्बुदों का विभागशः वर्णन उपस्थित करेंगे
१-अधिवृक्क बाह्यकीय ग्रन्थ्य र्बुद ( Cortical Adenoma )
अधिवृक्क के बाह्यक ( cortex of the adrenals ) में ग्रन्थ्यर्बुद की उत्पत्ति बहुत कम देखी जाती है। कभी-कभी प्रौढ़ावस्था में परमचय के नाभ्यक्षेत्र अर्बुद समान रचना बना लिया करते हैं जिन्हें ग्रन्थ्यर्बुद संज्ञा दी जाती है जो उचित नहीं। अधिवृक्क में जब ग्रन्थ्यर्बुदोत्पत्ति होती है तो स्त्रियों के अन्दर कई प्रकार के काम परिवर्तन ( sexual changes ) मिल जाया करते हैं। ग्रन्थ्यर्बुद से ग्रन्थिकर्कट (adeno. carcinoma ) भी बन सकता है। ___ इस अर्बुद के द्वारा एक पीतवर्ण का पिंड बन जाता है जो धरातल के ऊपर उठता रहता है। इस पिण्ड की रचना बाह्यक के कभी समान होती है और कभी विचित्र प्रकार की होती है । जब उसका आकार छोटा होता है तो उसे ग्रन्थकीय परमचय से पृथक् करना कठिन पड़ता है।
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