________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अर्बुद प्रकरण
७७६ छोटे अंकुरार्बुद देखे जाते हैं। कभी-कभी वृन्त या नालरहित अंकुरार्बुद भी देखने को मिलते हैं। यह अर्बुद स्त्रियों में बहुत कम परन्तु पुरुषों में अधिकतर देखा जाता है। जर्मनी में यह विनीली रंग के कारखानों में कार्य करने वाले श्रमिकों में बहुतायत से पाया जाता है।
बस्तिस्थ अंकुरार्बुद का निदान करने में शूलविहीन रक्तमेह (painless hae. maturia) बहुत महत्त्वपूर्ण है। रक्त चमकीला और लाल (जीवरक्त) होता है और वह मूत्र के साथ मिश्रित होता है। रक्तमेह निरन्तर चलता नहीं है। कुछ काल तक आकर फिर थोड़े या बहुत दिनों के लिए बन्द हो जाता है।मूत्र में रक्त सहसा ही आता और स्वयं ही बन्द हो जाता है आगे जब अर्बुद का आकार बढ़ जाता है तो रक्तस्राव की मात्रा भी बढ़ जाने से रोगी बहुत दुर्बल और पाण्डुर हो जाता है। इस रोग में मूत्र त्यागने के पश्चात् रक्त को चमकीली बूंदें पेशाब के बाद देखी जा सकती हैं। कुछ काल पश्चात् बस्ति में पाकोत्पत्ति होने से क्षोभ होने लगता है। बस्तिपाक होने पर मूत्र में पूय और श्लेष्मा का स्राव भी हो सकता है और मूत्र के साथ अर्बुद के सूक्ष्म खण्ड भी देखे जा सकते हैं। इस अर्बुद के अंकुर कभी-कभी गवीनीमुख को बन्द करके जलीय वृकोत्कर्ष ( hypernephrosis ) कर सकते हैं। कभी वे मूत्रमार्ग में आकर मूत्रोत्सर्ग क्रिया को रोक कर सहसा एवं चपलगति से मेढ़ में शूलोत्पत्ति कर सकते हैं। जब एक या दोनों गवीनीद्वारों को अंकुराबुंद के प्रवर्धनक भर देते हैं तो उदवृक्कोत्कर्ष ( hydro nephrosis ) तक होता हुआ देखने में आता है।
बस्तिदर्शक यन्त्र ( cystoscope ) द्वारा इस रोग का प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ करता है। जब भी शूलविहीन रक्तमेह का पता लगे, रोगी को बस्तिदर्शक मूत्र की सहायता से जाँचना चाहिए। देखने पर साधारण अंकुराबुंद श्वेत, झल्लरीय ( frilled ), अंकुरीय और वृन्तयुक्त होता है। उसके प्रवर्धनक तथा तन्तु मूत्र के ऊपर तैरते रहते हैं । दुष्ट अंकुरार्बुद अंकुरविहीन और सपाट ( bald ) होते हैं । दुष्टता का प्रमाण इनके व्रणीभवन से, भास्वीयों की पपड़ी ( encrustation with phosphates ) से तथा बस्तिपाक से भी मिलता है।
२-स्वरयन्त्रस्थ अङ्कुरार्बुद ( Papillomata of the Larynx) ___ साधारण अर्बुदों में अंकुरार्बुद या चर्मकील वह वृद्धि है जो स्वरयन्त्र में बहुतायत से तथा प्रायशः पाई जाती है । इस चर्मकील का आधार एक संयोजीऊति का बना होता है जिस पर अधिच्छद का एक स्तर उसी प्रकार चढ़ा रहता है जैसा कि अन्यत्र देखा जा सकता है। ये चर्मकील अकेले या बहुत से स्वरयन्त्र में बना करते हैं। वे विनाल या सनाल किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। यदि एक चर्मकील बना तो वह स्वरतन्त्रियों के अग्रिम दो-तिहाई भाग में बनता है । पर यदि कई अंकुरार्बुद
For Private and Personal Use Only