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अर्बुद प्रकरण
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अण्वीक्षण से इसकी रचना ग्रन्थिकर्कट की होती है । आस्तर के कोशा स्तम्भाकार या घनाकार होते हैं । इन कोशाओं का प्ररस यकृदर्बुदक कोशाओं के प्ररस की अपेक्षा अधिक स्वच्छ होता है । इसमें महाकोशा (giant cells) नहीं पाये जाते । जब यह कर्कट अधिक दुष्ट हो जाता है तो वह यकृदर्बुद से मिलता-जुलता हो जाता है । इस कर्कट के ग्रन्थकों के चारों ओर सघन तान्तव ऊति छाई रहती है जो उसे समीप की यकृत् ऊति से पृथक करती है । यकृदर्बुद में ऐसा पार्थक्य नहीं देखा जाता । वहाँ तो अर्बुद यकृत् कोशाओं के साथ मिल जाता है । इस रोग में लक्षण यकृदर्बुद के समान होते हैं परन्तु कामला बहुत अधिक होता है ।
उत्तरजात कर्कट - यकृत् ऐसा अंग है जहाँ उत्तरजात वृद्धियाँ सर्वाधिक पाई जाती हैं । महास्रोत के किसी भी भाग में प्राथमिक कर्कटोत्पत्ति हो वहाँ से केशिकाभाजिसिरा द्वारा कर्कट कोशा यकृत् को अवश्य और कभी भी पहुँच सकते हैं । विशेष कर आमाशय में कर्कट होने पर यकृत् में उसका उत्तरजात स्वरूप अवश्यमेव तैयार होता है । उसके पश्चात् वृक्क, गर्भाशय, वक्ष और फुफ्फुस की गणना की जा सकती है। आँख में होने वाले दुष्ट काल्यर्बुद ( melanoma ) का विस्थाय यकृत् में बनता है ।
उत्तरजातीय यकृत् के कर्कट एक न होकर कई होते हैं। वे केन्द्र में न जाकर यकृत् के ऊपरी धरातल के अधिक समीप होते हैं । वे कोमल और ऊतिनाश से युक्त होते हैं। उनका रंग ऊतिनाश के कारण पीला देखा जाता है या पित्त उन्हें हरा रंग देता है । इनका आकार कभी और कहीं बड़ा तो कहीं छोटा देखा जाता है । ऊतिनाश के कारण धरातलीय अर्बुद केन्द्र में नत ( falling in of the centre ) होते हैं जिसके कारण ऊपर से गर्त से प्रकट होते हैं जिसे नाभ्यन ( umbilication ) कहते हैं ।
विलिस का कथन है कि यदि ऐसे यकृत् को जिसमें पित्तवाहिन्यर्बुद हों पतलेपतले छेदों में काटा जावे तो अर्बुद के ग्रन्थक केशिका भाजिसिरा की बड़ी शाखाओं में आगे की ओर निकले हुए देखे जाते हैं जिन्हें अण्वीक्षण से देखने पर ऐसा स्पष्ट दृष्टि गोचर हो जाता है कि कर्कट कोशा वास्तव में रक्तधारा में उन्मुक्त किए जा रहे हों । इस प्रकार एक ही कर्कट से अनेक वृद्धियाँ यकृत् में बन जाती हैं ।
जब यही कर्कट कोशा बाहर जाने वाली सिराओं में उन्मुक्त होते हैं तो उनके कारण फुफ्फुसों में भी उसी प्रकार के विस्थाय उत्पन्न हो जाते हैं ।
४ - पित्ताशयिक कर्कट ( Cancer of the Gall Bladder )
पित्ताशय में प्रथमजात दुष्ट व्याधि कर्कट तक सीमित रहती है । संकटार्बुद यहाँ उत्पन्न होता होगा इसमें सन्देह है । कर्कट के कोशा स्तम्भाकार होते हैं पर कभी-कभी समपुष्टि के कारण, जो जीर्ण पित्ताशयपाक तथा अश्मरियों के कारण होती है, विशल्कीय अच्छिदार्बुद हो सकता है | अधिच्छदार्बुद के अतिरिक्त इस क्षेत्र के कर्कट के अन्य भी
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