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विकृतिविज्ञान
या अधिच्छदीय वृद्धियों के उत्पाद न में देखा जाता है। ताम्र तथा केत्वातु (cobalt) के साथ कार्य करने वाले कारीगरों में दुष्टार्बुद देखी जा सकती है। ताम्र पहले कोशाओं को आघातग्रस्त करता है फिर बाद में उन कोशाओं में प्रतिक्रियात्मक वृद्धि हो जाती है।
जीर्ण प्रक्षोभ जनित परिस्थितियों का अध्ययन करने से यह विश्वास दृढ़ हो जाता है कि वे कर्कट में परिणत होनी ही चाहिए पर वे सभी क्यों नहीं होतीं यह प्रकृति की एक विशेष कृपा ही कही जा सकती है। क्योंकि प्रक्षोभ के निरन्तर होने से अतिकोशाओं का विनाश होता है उस नाश के कारण वहाँ उपशमकारी प्रतिक्रिया होती है व्रणशोथकारी अभिकर्ताओं की उपस्थिति से जीवित बचे कोशाओं के चयापचय में परिवर्तन हो जाता है साथ ही वहाँ रक्त की कमी और तन्तूत्कर्ष हो जाता है साथ ही वर्षों प्रक्षोभ चलता रहता है यह सभी दुष्टार्बुदोत्पत्ति के प्रधान साधन हैं।
भ्रौणिकीय अवशेष ( embroyonic rests )-इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि भ्रौणिकीय अवशेषों के द्वारा भी अर्बुदोत्पत्ति होती है अर्थात् मनुष्य शरीर में कुछ कोशा ऐसे भी पड़े रहते हैं कि जिनका पूर्ण विकाश नहीं हो पाता बल्कि जो अपने श्रौणिकीय रूप में ही रहते हैं। ऐसे भ्रौणिकीय अवशेष हम अस्थियों में कास्थियों की उपस्थिति के रूप में देखते हैं। एक उदाहरण अनवतीर्ण वृषणों ( undescended testis ) का दिया जा सकता है जो दुष्टार्बुदोत्पत्तिकारक हुआ करते हैं। जो कोशा अवशेषों का कार्य करते हैं ये वे होते हैं जिन्हें अपनी स्वाभाविक क्रिया करने का अवसर नहीं मिला होता और जिनकी क्रिया अवरुद्ध रहा करती है। उनकी वृद्धि भी ठीक से नहीं होती, उन्हें रक्तपूर्ति भी पूर्णांश में नहीं हुआ करती, तथा जो पूर्णवयस्कता की क्रियाशीलता के गुण से भी वञ्चित रहते हैं। इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनमें जब जीर्ण विक्षोभ या आघात का प्रभाव पड़ता है तो वे वर्षों बाद पुनः जगते हैं इनके कोशिकीय चयापचय में परिवर्तन होने लगता है और उनमें प्रबल वृद्धि होकर अर्बुदोत्पत्ति हो जाती है। यदि श्रौणिकीय अवशेषों की उपस्थिति को महत्त्व दिया जावे तो फिर दुष्टाबंदोत्पत्ति के लिए पृथक से किसी अन्य विषाणु के खोजने की आवश्यकता भी नहीं रहती।
तन्वीयन ( involutionary changes)-प्रजननाङ्गों के द्वारा जननक्रियाओं की समाप्ति पर उनमें तन्वीयनकारी परिवर्तन देखे जाते हैं। स्त्रियों में प्रजननकाल में प्रजननांगों में, स्तनों में तथा कुछ अन्तःस्रावी ग्रन्थियों में अतिघटन और तन्वीयन के तालबद्धकाल ( rhythmic periods ) आया करते हैं। पुरुषों में ये चक्र उतने स्पष्ट नहीं हुआ करते। कुछ भी हो जब तन्वीयन के काल आते हैं उसमें स्त्रियों में ईस्ट्रीय क्रिया अत्यधिक रहती है और तब दुष्टार्बुदोत्पत्तियाँ प्रायः देखी जाती हैं। जब प्रजनन कार्य पूर्णतः स्तब्ध हो जाता है तब इन अंगों में हुए तन्वीयन के बाद कर्कटोत्पत्ति मिला करती है।
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