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विकृतिविज्ञान
अधिक से अधिक तृतीय श्रेणी ( grade ) तक के होते हैं चतुर्थ श्रेणी का कर्कट नहीं
मिला करता ।
ओष्ट कर्कट का प्रसार प्रायः स्थानिक होता है । अधरोष्ठीय कर्कट ओष्ट को नष्ट कर सकता है, हनुप्रदेश की स्वचा को विदीर्ण कर सकता है तथा अन्त में हन्वस्थि तक को अपने प्रभाव में ले आ सकता है । ओष्ट के पार्श्वभाग से उपहन्वीय लसग्रथक प्रभावित हो जाते हैं तथा केन्द्र से हनु के पीछे के ( submental ) लसग्रन्थक उपसृष्ट हो जाते हैं परन्तु लालाग्रन्थियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । उसके आगे ऊर्ध्वग्रैविक सम्पूर्ण सप्रन्थक प्रभाव में आ सकते हैं चाहे वे उपरिष्ट हों या गहराई में हों। अधोग्रैविक ( inferior cervical ) तथा ऊर्ध्वअक्षकीय ( supra clavicular ) लसग्रन्थकों का ओष्ट से प्रत्यक्ष कोई सम्पर्क नहीं होता इस कारण से ये अप्रभावित रहते हैं तथा यदि प्रभावित हुए भी तो तब जब रोग बहुत अधिक विस्तृत और जीर्ण हो जाता है ।
प्रभावित ग्रन्थकों में व्रणशोथात्मक सूजन रहती है इस कारण वे कुछ स्थूल हो जाते हैं परन्तु यह स्थूलता स्पर्श पर उतनी कठिन नहीं मिलती जितनी कि अन्य कर्कटों के कारण लसग्रन्थियों में हुआ करती है ।
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आयुर्वेद में कई ओष्ठ रोगों का वर्णन है उनमें एक इस प्रकार है :
खर्जूरफलवर्णाभिः पिडकाभिः समाचितौ । रक्तोपसृष्टौ रुधिरं स्रवतः शोणितप्रभौ ॥ मांसदुष्टौ गुरू स्थूलौ मांसपिण्डवदुद्गतौ । जन्तवश्चात्र मूर्च्छन्ति सृक्कस्योभयतो मुखात् ॥ (सुश्रुत) इसी को अष्टाङ्गहृदयकार ने
रक्तोपसृष्टौ रुधिरं स्रवतः शोणितप्रभौ । खर्जूरसदृशं चात्र क्षीणे रक्तेऽर्बुदे भवेत् ॥ मांसपिण्डपमौ मांसात्स्यातां मूर्च्छत्कृमी क्रमात् ।
यह सम्पूर्ण विवरण सव्रण ओष्ठ कर्कट ( ulcerating lip cancer ) का है । वाग्भट ने उसे रक्तार्बुद नाम भी दे दिया है । यह खजूर के फल के समान लाल सुर्ख पिण्डकाओं से युक्त रक्तस्रावी और रक्त से उपसृष्ट होते हैं । रक्तदुष्ट अर्बुद बता कर फिर मांसदुष्ट अर्बुद का वर्णन किया है कि वह ओष्ठ के मांसल भाग को स्थूल गुरु और कठिन बना देता है तथा वहाँ जो व्रण बनता है उसमें रोगकारी जीवाणु उत्पन्न होते हैं । यह वर्णन दो विविध कर्कटों का वर्णन है या अधिच्छदार्बुद की विविध अवस्थाओं को व्यक्त करता है यह नहीं कहा जा सकता । व्यवहार में तथा प्रत्यक्ष की देखने से सम्पूर्ण वर्ण ओष्ठीय कर्कट का प्रतीत होता है । रक्तस्राव होना और कृमि पूर्णता ये दो लक्षण आधुनिक वैकारिकी विशारद भी मान रहे हैं ।
'Ulceration with infection and destruction of the tissues is steadily prosgressive.........Since the ulcerated growth is always infected the glands also become septic and various complications such as abscesses and haemorrhages
may ensue. '
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