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अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ
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श्लेष्मल कला में विक्षत बनता है तथा दूसरे में त्वचा, उपत्वक् ऊतियों तथा लसवहाओं में विक्षत बनते हैं दोनों रूप तीव्र और जीर्ण अवस्थाओं को प्राप्त हो सकते हैं ।
केन्द्रभाग में मिलता होता है। इसके भी
मनुष्यों में इस व्याधि के ये दो रूप नहीं मिलते। किसी-किसी में विक्षतों की आकृतिविधियों के समान होती है और किसी-किसी में यदिमकाओं के समान । एक गोल ग्रन्थि विन्दु से लेकर मटर तक के आकार की उठती हुई देखी जाती है । इस ग्रन्थि का छेद करने पर उसमें सितकोशाओं का एक पुञ्ज है जिसके चारों ओर अन्तश्छदीय कोशाओं का एक कटिबन्ध बाहर रक्त के लाल बिम्बों का एक कटिबन्ध और भी हो सकता है । इस ग्रन्थि को कलिका ( fancy bed ) भी कहते हैं । इसमें वाहिनियों की उपस्थिति अपूर्ण रहती है । यह पहले ही कहा जा चुका है कि इस रोग में विक्षतों में महाकोशा नहीं मिलते तथा किलाटीयन भी नहीं होता । आगे चलकर विक्षत केन्द्र में नष्ट होते हैं और पूयन प्रारम्भ हो जाता है । यदि यह कलिका धरातल के समीप बनी तो एक दुर्गन्धपूर्ण आधारयुक्त व्रण बनता है जिसके किनारे तीक्ष्णता से कटे हुए रहते हैं ये किनारे पर्याप्त कठिन होते हैं । वे व्रण जीर्णावस्था को प्राप्त हुआ करते हैं । साथ में ज्वर का अनुबन्ध रहता है । रोग असाध्य या कष्टसाध्य माना जाता है ।
इस रोग का निदान करना कठिन होने से स्ट्रास ने एक परीक्षा बतलाई है । वह यह है कि विक्षत के पदार्थ को लेकर एक नरवंटमूष ( male guinea pig ) की उदरच्छद में अन्तःक्षिप्त कर दें। इसके कारण २४ घंटों में वृषणों के अण्डधरपुटक में ( tunica vaginalis ) में तीव्र व्रणशोथ उत्पन्न हो जावेगा । अण्डधरपुटक से तरल लेकर आलू पर जमा देने से पीत मधु के समान संवर्ध उग आता है । यही इसकी परीक्षा है |
नासावृद्धि ( Rhinoscleroma )
यह भी एक औपसर्गिक कणार्बुद है । इस रोग में जाती है इसी से इसका यह नाम दिया गया है । यह के निवासियों में पाया जाने वाला रोग है जो या तो वहीं द्वीप प्रवास करके अन्यत्र कहीं बस जाते हैं तो वहाँ भी देशीय में यह नहीं होता ।
इस रोग का कर्त्ता कवकजातीय जीव नहीं होता । उसका नाम नासावृद्धि प्रावर वेत्राणु (klebsiella rhinoscleromatis ) है । इसका फिश नाम क विद्वान् ने पता लगाया था ।
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नासा में कठिन सूजन आ
पूर्वीय श्वेतद्वीप ( यूरोप )
होता है या जब पूर्वीय श्वेत
देखा जा सकता है । अन्य
यह रोग अश्वग्रन्थि से मिलता-जुलता होता है । इसके कारण कठिन स्पष्ट प्रकट होने वाले पुञ्ज अग्रनासारंध्रों के पास की श्लेष्मलकला या नासात्वचा पर देखे जाते हैं । वहाँ से वे ओष्ठों, दंतमांसों और नासागुहा तक चले जाते हैं। यहाँ तक कि उन्हें तालु (patate ) तक भी देखा जा सकता है । आगे चलकर प्रसनी और स्वर