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अर्बुद प्रकरण
६५७ उसी दृष्टि से मनुष्य में कर्कटोत्पत्ति के लिए तारकोल का प्रयोग १० या १५ वर्ष तक करना पड़ सकता है। विशुद्ध कर्कटोत्पादक पदार्थों का प्रयोग करने से यह समय और भी कम हो जाता है। ९ : १०-द्विप्रोदल-१: २ विधामी केवल ३५ दिनों में चूहों ( mice ) में कर्कटोत्पत्ति कर सकता है। यह पदार्थ सबसे अधिक द्रुत कर्कटजनक माना जाता है । __ यह स्मरणीय है कि ये रासायनिक पदार्थ जहाँ स्वचा के नीचे अन्तःक्षिप्त हो जाने के कारण स्थानिक संकटार्बुद कर देते हैं वहाँ वे अन्यत्र कर्कट की उत्पत्ति भी करते हुए देखे गये हैं विशेष करके फुफ्फुसीय कर्कट देखा जाता है । एक वैज्ञानिक ने एक मूषक की स्वचा के नीचे द्वि विक्षामेण्य का अन्तःक्षेप करके मुख द्वारा भी उसका सेवन कराया इस आशा से कि आमाशयिक कर्कट इस प्रकार उत्पन्न किया जा सके परन्तु वह इसमें सफल न हो सका अपि तु उसके स्थान पर उसे फुफ्फुसीय कर्कर प्राप्त हो गया।
फुफ्फुस में कर्कट का कारण उपसर्ग का रनधारा द्वारा जाना न सिद्ध होकर सीधे मुखद्वारा गया हुआ सिद्ध हुआ। मूर्षों में जैसे फुफ्फुसीय कर्कट सरलतापूर्वक हो जाता है वैसे ही शशकों में गर्भाशयिक कर्कट बहुलतापूर्वक मिलता है । कई विद्वानों ने १ : २ : ५ : ६ द्विविक्षामेण्य के अन्तःक्षेप (इलेक्शन्स) अनेक प्राणियों में किए और वे इस परिणाम पर पहुँचे कि अन्तःक्षेपस्थल पर किसी प्रकार का भी अर्बुद उत्पन्न नहीं हुआ पर गर्भाशय में ५० प्रतिशत प्राणियों में कर्कटोत्पत्ति हो गई।
___ कर्कटजनक पदार्थ जितनी अधिक देर तक स्वचा या श्लैष्मिककला के सम्पर्क में रहता है उतनी ही शीघ्रता से कर्कटोत्पत्ति होती है। यदि हम कर्कटजनक उदांगारों को किसी ऐसे विलयन में घोल दें जो तुरत प्रचूषित हो जावे तो कर्कटोत्पत्ति असम्भव हो जाती है। यतः आमाशयः में गया हुआ कर्कटजनकतत्व शीघ्र प्रचूषित हो जाता है अथवा वहाँ रासायनिक द्रव्यों के योग से उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है अतः अनेक प्रयोग करने पर भी वैज्ञानिक आमाशयिक कर्कट की उत्पत्ति प्रयोगशाला में करने में सफल नहीं हो सके।
रासायनिक कर्कटजनक पदार्थों के साथ यदि भौतिक कर्कटजनक पदार्थों की भी सहायता ले ली जावे तो अधिक संख्या में तथा बहुत शीघ्र कर्कटोत्पत्ति की जा सकती है।
कर्कटकारी उदांगारों के कारण प्रकृत कोशाओं में कौन-कौन परिवर्तन होते हैं जिनके कारण कर्कटोत्पत्ति होती है कहना कठिन है। ऐसा लगता है कि कोशाओं की चयापचयिक क्रिया में मध्वंशनी क्रिया (glycolysis ) वातजीवी से अवातजीवी ( from aerobic to anaerobc ) हो जाती है। अबातजीवी मध्वंशन सदैव वृद्विकारक होता है और वह भ्रौणकोशाओं में देखा जाता है जहाँ वृद्धि अधिक और क्रिया कम होती है। जब केशा स्वस्थ हो जाते हैं तो उनमें मध्वशन वातजीवी होता है जिसके कारण वृद्धि ज्यों की त्यों रहती है परन्तु क्रियाशक्ति बढ़ जाती है । वातजीवी से अवातजीव मध्यंशन के कारण अबुंदीय ऊतियाँ बड़ो सरलता से शर्करा
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