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एकादश अध्याय
अर्बुद प्रकरण
अर्बुद की परिभाषा सश्रत अपनी संहिता के निदानस्थान के ग्यारहवें अध्याय में अर्बुद का परिचय देते हुए लिखता है:
गात्रप्रदेशे क्वचिदेव दोषाः संमूच्छिता मांसमभिप्रदूष्य । वृत्तं स्थिरं मन्दरुजं महान्तमनल्पमूलं चिरवृद्धथपाकम् ।
कुर्वन्ति मांसोपचयं तु शोफ तदर्बुदं शास्त्रविदो वदन्ति ॥ इसका अर्थ करते हुए श्री पं. लालचन्द्र जी लिखते हैं-शरीर के किसी भाग में वातादि दोष कुपित होकर मांस एवं रक्त को दूषित करके गोल, स्थायी, थोड़ी पीडा युक्त, बड़ा, चौडी मूलवाला, चिर (वर्षों में ) से बढ़ने वाला, कदापि न पकने वाला एवं अत्यन्त गहरे मूल वाला मांसोच्छ्रय (मांसपिण्ड) कर देते हैं इन्हें शास्त्रवेत्ता विद्वान् ‘अर्बुद' या रसौली कहते हैं।
उपरोक्त परिचय से हमें निम्न वस्तुएँ प्राप्त होती हैं:
५-अर्बुद शरीर के किसी भी देश में हो सकता है कोई भी स्थान या ऊति ऐसी नहीं जिसमें अर्बुद न हो सकता हो । क्वचिदेवानियतप्रदेशे न पुनरपचीवत् हन्वस्थ्यादिसन्धिष्वेव ।
२-यह शारीरिक दोषों के द्वारा ही उत्पन्न होने वाला रोग है इसमें जीवाणुओं, भूतों या आगन्तुकारणों का कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं है। जब दोषवृद्धि को प्राप्त होते हैं तो मांसादि धातुओं को दूषित करके अर्बुदोत्पत्ति करते हैं। संमूच्छिताः दोषाः वृद्धिंगताः दोषाः । संमूञ्छिता दूष्यसंसृष्टा इति कात्तिकः ।
३-यह एक प्रकार का वृत्त ( circular ), स्थिर ( steady ), अल्पशूलयुक्त, बड़ा और गहरा ( deep seated ) शोफ है।
४-इस शोफ की वृद्धि चिरकाल में होती है। ५-अर्बुद का पाक नहीं होता । इसके लिए अष्टांगहृदयकार भी लिखते हैं
प्रायो मेदः कफाट्यत्वात्स्थिरत्वाच्च न पच्यते । कि इसमें मेदोधातु तथा कफदोष का विशेष अनुबन्ध रहता है और यह स्थिर प्रकृति का होने के कारण पकता नहीं है। पाक सदैव व्रणशोथज वृद्धि ( inflammatory newgrowths ) में होता है । अतः उससे अर्बुद का कोई सम्बन्ध नहीं है।
१. कुर्वन्ति मासोच्छ्यमत्यगाथम् -- ( गयदासः)
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